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बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फरवरी 2017



।। कथा प्रवाह ।।

बलराम अग्रवाल




वे दो
      यह रेगिस्तानी ठूँठ-सा था। अकेला। उपेक्षित।
      और वह सद्य-प्रवाहिता नदी-सी। अपनाई और छोड़ी जाती हुई।
      हालात ने इसे बहरा बना दिया था।
      और उसे पगली।
      यह सुन नहीं पाता था।
      और उसे बकते रहने की बीमारी लग गई थी।
      मैंने देखा कि धरती के एक भीड़-भरे इलाके में दोनों एक दिन आमने-सामने बैठे थे। उकड़ू। इसने अपनी दोनों कुहनियों को घुटनों पर टिका रखा था और चेहरे को मुट्ठियों पर। उसने अपनी बायीं-हथेली इसके नंगे कंधे पर रखी हुई थी।
      यह मुँह-बाये अचरज से उसे ताक रहा था। जैसे कि मुद्दत बाद किसी ने अपना समझा हो।
      वह दायाँ-हाथ हवा में लहरा-लहरा कर अपनी व्यथा इसे सुनाए जा रही थी। जैसे कि जन्मों बाद मन की पीर सुनने वाला कोई मिला हो।
      यह पिघलता जा रहा था उपेक्षित कंधे पर गर्म हथेली के स्पर्श और उसके टिकाव से।
      वह घुली जा रही थी। अन्तहीन व्यथाओं को कहते-कहते, कहते-कहते।

अगर तू खुदा है

      अलग-अलग आदमी में अलग-अलग खटक होती है। कभी किसी बात को लेकर तो कभी किसी ‘आदमी’ को लेकर। बहुत-से लोगों में मुझे लेकर भी खटक रहती है और वो जिन्दगी भर रहती है। एक बेचारा ऐसा था जिसने शाम को घर लौटते समय शराब की बोतल खरीदने और दुकान से ही पीते हुए चलने को अपना नियम बना रखा था। रास्ते में एक मस्जिद पड़ती थी। वह उसके सामने रुकता। बोतल में बची बाकी सारी शराब को गले में उतारता और तर्जनी उठाकर मुझे चुनौती देता-
      अगर तू खुदा है तो मस्जिद को हिलाकर देख।
      या दो घूँट इसके पी और मस्जिद को हिलता देख।।
      ‘जुगनू’ नाम का वह शायर जब तक जिन्दा रहा, मुझे चुनौती देता रहा। असलियत तो यह है कि वह मरने के बाद आज तक भी मुझे चुनौती देता-सा नज़र आता है।
      दरअसल, मन्दिर को, मस्जिद को, गिरिजा को, गुरुद्वारे को एक बारगी शैतान तो हिला सकता है, मैं या मेरा कोई बंदा नहीं।
  • एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के पास, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32/मो. 08826499115

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