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रविवार, 12 नवंबर 2017

लघुकथा विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




{इस ब्लॉग के जुलाई-अगस्त 2017 अंक तक लघुकथा सम्बंधी आलेख एवं साक्षात्कार ‘अविराम विमर्श’  स्तम्भ में प्रकाशित किए जाते रहे हैं। इस अंक से लघुकथा विमर्श सम्बंधी समस्त सामग्री इस नए स्तम्भ ‘लघुकथा विमर्श’ स्तम्भ में ही जाएगी। कृपया पूर्व में प्रकाशित लघुकथा विमर्श की खोज ‘अविराम विमर्श’ स्तम्भ में ही करें।}



डॉ. पुरूषोत्तम दुबे




महाराष्ट्र : लघुकथा का आसमान साफ है


      हिन्दीतर महाराष्ट्र प्रांत से हिन्दी की सोच से परिपूरित होकर हिन्दी लघुकथा का आना हिन्दी लघुकथा सर्जन के सम्मान में एक महती प्रदेय है। महाराष्ट्र से परोसे जाने वाली लघुकथाएँ स्वयं लघुकथाकारों के आन्तरिक द्वन्द्वों से परिचालित होकर लिखी गई मिलती है। यही कारण है कि यहाँ का लघुकथाकार आन्तरिक तौर पर वैचारिक द्वन्द्वों से उत्पन्न तनाव की स्थिति को पहले भोगता नजर आता है। फिर लघुकथाआंे मंे ऐसे भोगे हुए तनावों को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है। महाराष्ट्र से आने वाली लघुकथाआंे का यदि बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि यहाँ के लघुकथाकार ‘केवल लघुकथा हो गई’ सरीखे निराकरण पर यकीन न करके लिखी गई लघुकथा पर बारम्बार विचार कर देश-काल और परिवेश की जरूरत की दृष्टि से उसमें अपेक्षित सुधार कर लघुकथा को अन्तिम रूप देता है। अतएव महाराष्ट्र से आने वाली लघुकथाऐं भाव-प्रवणता से कहीं अधिक विचार प्रवणता से ओत-प्रोत हुई मिलती हैं।
      शब्द जब वाक्य में ढलता है तब लघुकथा अथवा सर्जनात्मक लेखन बनता है। अकेले ‘नाव’ भर लिख देने से नदी और नदी के दोनों तटों का आभास उभर कर सामने आता है। इस सिलसिले मंे हिन्दी के स्थापित समीक्षक रमेश दवे का कहना महत्वपूर्ण है कि ‘‘शब्द की सृष्टि उसके अकेेलेपन में एक भौतिक भाषाई इकाई है लेकिन जब वह सन्दर्भवान, अर्थवान और वाक्यवान होता है तो विचार भी हो जाता है और संवेदन के या सौन्दर्य के नाना रूप धारण कर कविता, कहानी, नाटक, कलाकृति भी बन जाता है।’’ शब्द की यही सृष्टि लघुकथा का विन्यास भी रचती है।
      महाराष्ट्र से आने वाले स्थापित और श्रेष्ठी लघुकथाकारों में शंकर पुणताम्बेकर, घनश्याम अग्रवाल, भगवान वैध ‘प्रखर’, डॉ. दामोदर खड़से, अनन्त श्रीमाली, अशोक गुजराती और सेवासदन प्रसाद के नाम उल्लेखनीय है। इनमें से शंकर पुणताम्बेकर की लघुकथाएँ सामाजिक साम्य और वैषम्य से टकराती मिलती है। उनकी लघुकथा ‘चुनाव’ इन्सपेक्टर राज्य के प्रभुत्व को वर्णित करती है। स्कूल शिक्षक अपने सजातीय पेशे वाले स्कूल इन्सपेक्टर के बच्चे को पहले नम्बर से उत्तीर्ण नहीं करते हुए पुलिस इन्सपेक्टर के बच्चे को पहले नम्बर से उत्तीर्ण करता है। कहने की जरूरत नहीं देश के डण्डा राज्य से पाठक और समाज भलीभांति परिचित है। उनकी ‘चींटी और कबूतर’ लघुकथा ऐसे दनुज के चरित्र को बखान करती मिलती है, जो कालाबाजारी और करचोरी में माहिर होकर समाज में अपना उजला मुखौटा बनाए रखने में अपने संरक्षको के कार्यक्रमों के आयोजनांें के भारी खर्च उठाता है। घनश्याम अग्रवाल की लघुकथाएँ सामाजिक संदर्भो से जुड़ी हुई होकर सामाजिक यथार्थ का कटु रूप उपस्थित करती मिलती है। स्त्री-विमर्श पर केन्द्रित आपकी दो लघुकथाएँ ‘रोटी, कपड़ा मकान’ तथा ‘औरत का गहना’ एक ही साँचे में ढली मगर पृथक-पृथक ऐसी दो स्त्रियों की दास्तानें व्यक्त करती है कि जिन्दा रहने के लिए उन्हंे देह व्यापार के लिए विवश होना पड़ता है और ऐसे कुत्सित व्यापार में शर्म का गहना तक बेच देना होता है। भगवान वैद्य ‘प्रखर’ की लघुकथाएँ ‘विकल्प’ तथा ‘अभिलेख’ अपने ढंग की अलग लघुकथाएँ हैं। ‘विकल्प' लघुकथा में नशाखोर पति खुद के लिए शराब की व्यवस्था जुटाने में अपनी पत्नी को ठेकेदार का हमबिस्तर बनने में झोंक देता है। ‘अभिलेख’ लघुकथा वन-विभाग की उन काली करतूतों को उजागर करती है जिसके अफसरशाह अपनी जेबों में काली कमाई के हरे-हरे नोट भरने हेतु हरे-भरे जंगलों को क्रूरता के साथ जलाकर उनमें फिर से हरियाली रोपने के उद्यम में  दोहरा लाभ उठाते हैं। डॉ. दामोदर खड़से की लघुकथाएँ ‘युक्ति’ और ‘भक्ति’ दोनो धर्म केन्द्रित है। ‘युक्ति लघुकथा में एक पत्थर को सिन्दूर में पोतकर घर की उस दीवार मंे सटकर रख दिया जाता है, जिससे सटकर हर आने जाने वाला जिसको पेशाब घर के रूप में इस्तेमाल करता है और ऐसे पेशाबियों पर नियंत्रण की दृष्टि से उसी दीवार पर ‘बजरंग बली की जय’ लिख दिया जाता है। लघुकथा ‘भक्ति’ दर्शाती है कि वर्तमान में सारे जंगल फल विहीन हो गए हैं, ऐसे में भूख को मिटाने वीर हनुमान कहाँ जाए! अतः वे साक्षात रूप मेें एक बस्ती में प्रकट होते हैं मगर उन पर कोई विश्वास नहीं करता। वे यहाँ मखौल के पात्र बनते हैं, बावजूद इसके अपना परलोक सुधारने में एक वृद्ध उनके चरणों में झुक जाता है। इस प्रकार लघुकथा ‘भक्ति’ समाज में वासित अंधविश्वासी लोगों के लिये स्वर्ग की टिकिट के द्वार खोलती मिलती है।
      अनन्त श्रीमाली की लघुकथाओं- कर्फ्यू, सत्संग तथा हिसाब-किताब में से लघुकथा ‘कर्फ्यू’ सामाजिक सहिष्णुता के बल पर हिन्दू-मुस्लिम को एक साथ चाय पीते हुए वर्णित करती है बरअक्स इसके सामाजिक असहिष्णुता की चिंगारी से लथ-पथ होकर पारस्परिक समभाव को मेटने में हिन्दू-मुस्लिम के यही वर्ग समाज में साम्प्रदायिक आग को भड़काते हैं। अशोक गुजराती की लघुकथाएँ- नौकरी चाहिए, सेल का खेल और हींग लगे न फिटकरी; तीनों ही वर्तमान सन्दर्भो से आप्लावित है। लेकिन उनकी ‘हींग लगे न फिटकरी’ लघुकथा वास्तव में इसी मुहावरे को चरितार्थ करती प्रतीत होती है। प्रस्तुत लघुकथा में कॉलेज की नेतागिरी से उठे एक ऐसे छात्र पर केन्द्रित है जो अपनी विचारधाराओं के दल में शामिल होकर नगर निगम का चुनाव जीत लेता है, फिर थोड़ा रसूखदार बनकर अपने दल के सत्तासीन होेने का फायदा अपने नाम पेट्रोल पंप आवंटित कराकर उठाता है। अंत में सेवासदन प्रसाद की लघुकथा ‘नये साल का विष’ राष्ट्र की चिंता में ऐसे युवक को नायक बनाकर पेश करती है, जो इंजीनियर अथवा डॉक्टर बनकर विदेश में जाने की बजाए गुणी नेता बनकर अपने देश को तरक्की की राह पर खड़ा करना चाहता है। प्रस्तुत लघुकथा भारतीय युवाओं के विदेश के सिलसिले में हो रहे ‘ब्रेन ड्रेन’ के स्थान पर अपने ही देश के हित में ‘ब्रेन गेन’ के उपयोगी प्रतीकों को लेकर घटती है। 
      महाराष्ट्र की लघुकथाओं पर मैं मानता हूँ कि यह आलेख, महाराष्ट्र की लघुकथाओें के विवेचन के संदर्भ में नाकाफी है, लेकिन उक्त विवेचित लघुकथाओं के कई छोर वर्तमान के लघुकथाकारों को लघुकथा विषयक सर्जन हेतु दिशा-बोध कराने में महत्वपूर्ण है। महाराष्ट्र का साहित्यिक परिवेश समुन्नत है, यहाँ से आने वाले नाटकों की एक समृद्ध परम्परा रही है। बंगाल की तरह ही महाराष्ट्र के नाटककारों का वर्चस्व कायम है। लघुकथाओं की सटीकता प्रायः सम्वादों के बूते से कथानकों की बनावट और बुनावट पर अधिक निर्भर करती है, अतएव लघुकथा मंे लघुकथाओं को अनावश्यक विस्तार से बचाने मेें सम्वादों का कैसे उपयोग किया जा सकता है, इसकी प्राथमिक और महती सूझ-बूझ को हासिल करने की दिशा में महाराष्ट्र की लघुकथाएँ अत्यन्त श्रेयस्कर हैं।

  • शशीपुष्प 74-जे/ए, स्कीम नं. 71, इन्दौर-452009, म.प्र./मो. 09407186940

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