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रविवार, 12 नवंबर 2017

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017



 {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कालौनी, बदायूं रोड, बरेली, उ.प्र. के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें।स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा }



डॉ. उमेश महादोषी




पीड़ा की एक नदी
‘‘जो भी हमको मिला राह में, बोल प्यार के बोल दिए।/कुछ भी नहीं छुपाया दिल में, दरवाज़े सब खोल दिए।/निश्छल रहना बहते जाना, नदी जहाँ तक जाएगी।’’ रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी की ‘मैं घर लौटा’ काव्य संग्रह की ये पंक्तियाँ महज बंजारों की प्रकृति का चित्रण नहीं करती, स्वयं उनके अपने स्वभाव को भी खोलकर दुनिया के सामने रख देती हैं। हम हिमांशुजी के सृजक से मिलें या व्यक्ति से, उनकी सहजता, सरलता और अनौपचारिकता कुछ ही क्षणों में प्रस्फुटित होकर सामने आ जाती है। एक कवि के
लिए यह सहजता, सरलता और अनौपचारिकता बेहद जरूरी होती है, क्योंकि इन चीजों का संवेदना और उसे संपुष्ट करने वाली न्यायसंगतता के साथ एक रिश्ता होता है। लघुकथा व हाइकु-ताँका के सृजन-अभियानों में अग्रणी भूमिका के साथ उन्होंने काव्य की लगभग हर विधा में सृजन किया है। उनके काव्य-सृजन में भाव और विचार से जुड़ी अनुभूतियों की प्रभावशाली अभिव्यक्ति मिलती है। हिमांशुजी की काव्य रचनाओं के भाव-विचार अद्यतन जीवन-मूल्यों के साथ परिवेशगत वातावरण से आते हैं। यही कारण है कि ‘मैं घर लौटा’ में शामिल उनकी 85 काव्य रचनाओं में से अधिकांश पाठक मन को छू जाती हैं। इन रचनाओं में एक ओर समाज के अनेक वर्गों-समूहों की परिस्थितियों एवं पीड़ा को अभिव्यक्ति मिली है तो मनुष्य की परिवेशजनित सामान्य पीड़ा भी उभरकर सामने आई है। 
      ‘पुरबिया मजदूर’, उनकी परिस्थितियों और उनके प्रति कथित संभ्रांत वर्ग के आचरण को हम सबने देखा है। हिमांशुजी उसे देखकर इस कदर व्यथित हो जाते हैं कि उनके अंतर्मन से एक लम्बी कविता फूटकर सामने खड़ी हो जाती है। ‘‘सफ़र में जो भी टकराता है/जी भरकर गरियाता है/कुहुनी से इसको ठेलकर/खुद पसर जाता है।’’... ‘‘टिकट होने पर भी/प्लेटफार्म पर छूट जाता है/भगदड़ होने पर/पुलिस के डण्डे खाता है,/सिर और पीठ सहलाता है।’’ हिमांशुजी इस संभावना को टटोलना चाहते हैं कि क्या संभ्रांत वर्ग उस ‘पुरबिया मजदूर’ के पसीने के अवदान को स्वीकार करके उसके प्रति अपना आचरण बदलेगा? हालांकि हम सब जानते हैं कि यह वो देश है, जहाँ ‘गरीब रथों’ पर अमीरों का कब्जा होता है और गरीब इन रथों को सपनों की तरह सामने से गुजरता देखता रहता है।
      कवि द्वार से लौटे याचक की पीड़ा को आत्मसात् करके भी व्यथित हो उठता है। लेकिन ‘याचना’ को धंधा बना चुके लोग इस पीड़ा के यथार्थ को संवेदना की सामजिक समझ के दरवाजे तक जाने दें तो कुछ बात बने। बंजारों की फक्कड़ मस्ती और बेटियों की मुस्कानों से आह्लादित कवि को ‘हाँफता हुआ बच्चा’ अपने बस्ते के बोझ से पुनः व्यथित कर जाता है। कवि की संवेदना का यह विस्तार घर बनाने वालों, दिया बनाने वालों आदि तक जाता है।
      मानवीय व्यवहार और रिश्तों से जनित दैनन्दिन पीड़ा इन रचनाओं में कई कदम आगे बढ़कर अभिव्यक्ति पाती है- ‘‘बाँटने आता न कोई/प्यार की पाती यहाँ,/बाँटने आते सभी हैं/दुःख भरी थाती यहाँ।/नाम रिश्तों का रटें/लेकर दुधारा/याद रखना।’’ इन दुःखों का भार सहने का रास्ता भी सुझाता है कवि- ‘‘सुख मिलने का/भरम लिये ही/भार दुःखों का ढोना/हँसी मिलेगी/यही सोचकर/एक उमर तक रोना।/गीली आँखें/पोंछ दर्द को/सहलाते रहना।’’ विभिन्न प्रतीकों-बिम्बों के सहारे अनेक जीवनानुभूतियों और मानव-मन की पीड़ा के विभिन्न रूप संग्रह को विविधिता से आच्छादित करते हैं। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है। राजनैतिक संरक्षण में पनपती लूट और लम्पटपन की संस्कृति पर पैने कटाक्ष भी इस संग्रह का हिस्सा बनकर मौजूदा परिवेश को विवस्त्र कर देते हैं। ‘कहाँ चले गए हैं गिद्ध?’ कविता में चिन्ता और संवेदना को व्यंजना की चादर पर फैलाकर हिमांशुजी जिस तरह धूप दिखाते हैं, वह निसंदेह प्रभावशाली है। समय-समय पर समाज और राष्ट्र के ताने-बाने को तार-तार करने पर आमादा जमात विशेष पर भी कवि ने अपनी व्यंजना के तीर कस-कस कर मारे हैं। ‘‘...लूटो-खाओ, पियो-पिलाओ- आज़ादी है।/....नफरत पलती बस्ती जलती- आज़ादी है।/...जिसका जूता, उसका बूता- आज़ादी है।....’’ संग्रह में कुछ ऐसी रचनाएँ भी हैं जो कवि के स्वाभिमानी और प्रतिनिधि व्यक्तित्व की दृढ़ता को भी सामने रखती हैं।
     अभिव्यक्ति के विविध रूपों को अपने में समाहित किए इस संग्रह को पीड़ा की एक नदी कहना अतार्किक नहीं होगा। इस नदी को पार करने के लिए कवि मानव-मन को सांत्वना देना नहीं भूलता- ‘‘दुःख की नदी बहुत है लम्बी, बहुत ही छोटी नैया/...../दूर किनारा, गहरी धारा, देख नहीं घबराएँ।’’ हिमांशुजी जैसा कवि अपने तमाम अभिव्यक्ति आचरण-व्यवहार को बिना किसी संगत उद्देश्य के जमीन पर नहीं उतारता। उनकी यह कामना इसी ओर संकेत करती है- ‘‘...हरियाली ले आऊँ/खुशहाली दे पाऊँ/नेह-नीर बरसाऊँ/धरती को सरसाऊँ...’’। मुझे कहना ही पड़ेगा- ऐसी काव्याभिव्यक्ति आज के समय की जरूरत है।


मैं घर लौटा : काव्य-संग्रह : रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’। प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-30। मूल्य : रु. 360/- मात्र। सं. : 2015।


  •  121, इन्द्रापुरम, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

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