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मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  07-10,  मार्च-जून 2017



किताबें


डॉ. उमेश महादोषी



जीवन-मूल्यों के संप्रेषण की जीवंत कड़ी: ‘मन का सुख’ कथा-संग्रह 
      वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी यूँ तो मूलतः कवि हैं, लेकिन अन्य विधाओं में भी उन्होंने महत्वपूर्ण लेखन करते हुए साहित्य-जगत में अपनी बहुमुखी प्रतिभा की छटा बिखेरी है। इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि मानव जीवन को सम्पूर्णता देने वाला विचार-दर्शन ‘अरुण’जी की अंतरात्मा का अभिन्न साथी है, जो अपने लक्षित पाठक के स्वभाव, सुविधा और सम्प्रेषण की आवश्यकता के अनुरूप सृजनात्मक देह धारण कर (विभिन्न विधाओं में) अभिव्यक्त होता है। लेकिन अरुणजी की मूल (काव्य) प्रवृत्ति हर विधा में साथ रहकर उनके कवि-हृदय की साक्षी बनती है। उनकी कहानियों के सन्दर्भ में भी यही सत्य है। अरुणजी की दस कहानियों के सद्यः प्रकाशित संग्रह ‘मन का सुख’ में उनका विचार-दर्शन उनके साक्षात अनुभवों से गुजरकर कथा-देह को सोद्देश्य धारण करता है। संग्रह की पहली कहानी ‘तब और अब’ में रचनात्मक प्रश्न उठाया गया है कि कथा नायिका किरण सिंह जैसे लोग सफलता की ऊँचाई पर पहुँचकर रिश्तों की उस जीवंतता का अर्थ क्यों भूल जाते हैं, जिसे थोड़े से अपनेपन और अनौपचारिक स्नेह की गर्माहट से पल-दो-पल की मुलाकातों में भी पैदा किया जा सकता है। रिश्तों की जीवंतता की अरुणजी की अपनी व्याख्या बेहद खूबसूरत है, जिसे उन्होंने भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी है संग्रह की अन्तिम कहानी ‘सलाम इस जीवट को’ में।
      आत्मीयता से परिपूर्ण रिश्तों के अनेक पक्षों को अनुभवों की व्यापकता के सहारे ‘अरुण’ जी प्रायः अपनी कहानियों में छूते हैं। ‘जिद्दी’ दो ऐसे मित्रों, तरुण और योगेन्द्र की कहानी है, जिनकी प्रगाढ़ मित्रता बचपन से आरम्भ होकर जीवन के अंतिम पड़ाव तक जाती है। इंजीनियर तरुण का अनौपचारिक अपनेपन व भावुकता का अतिरेक प्राध्यापक योगेन्द्र के स्वाभिमान से टकरा जाता है। तरुण अपने मित्र को आर्थिक परेशानी में महसूस करके सहायता का प्रस्ताव करता है, तो योगेन्द्र को लगता है कि तरुण अपनी आर्थिक सम्पन्नता से उसके स्वाभिमान पर चोट कर रहा है। बस! योगेन्द्र मित्रता को पार्श्व में धकेलकर तरुण को अपने घर से जाने को कह देता है। सामान्य परिस्थितियों में ऐसा ही होता है लेकिन रचनात्मकता घटना को कथा का रूप देती है। जीवन के चौथे पड़ाव में अचानक एक दिन तरुण का बेटा आकर अपने पिता के दर्द और पाश्चाताप भरी स्मृतियों का लिफाफा योगेन्द्र को सौंपता है। कैंसर का ग्रास बन चुके तरुण का पत्र योगेन्द्र को मित्र के प्रेम और अपनेपन के उस अतिरेक का अहसास कराता है, जिसे वर्षों पूर्व वह ‘‘दौलत का अभिमान’’ मानकर ठुकरा चुका था। प्रायः हम अपनी दृष्टि और विवेक के समक्ष दूसरों की दृष्टि और विवेक के बारे में सोचना बंद कर देते हैं। थोड़ी सी समझदारी से इससे बचा जा सकता है। पारिवारिक रिश्तों में पड़ती दरारों को पाटती कहानी ‘‘जीत गई थी ममता’’ में यह समझदारी देखने को मिलती है। 
      एक समय की कथित छोटे लोगों के उपभोग की पारम्परिक स्वाद और वातावरण की अनुभूतियों जैसी चीजें आज दुर्लभ होकर धनाड्य और कथित बड़े लोगों के आकर्षण का केन्द्र और अनेक नए-नए व्यवसायों का आधार बनती जा रही हैं। लेकिन इनके विकास के पीछे अपने परिश्रम और दक्षता का योगदान कर रहे मेहनतकशों को उनका वास्तविक पारिश्रमिक और श्रेय नहीं मिलता। उसे हड़प जाते हैं व्यवसाय के विभिन्न एजेंट। ‘रामरति का सुख’ इसी प्रवृत्ति से पर्दा उठाती एक यथार्थपरक कहानी है।
      समाज में कैंसर की तरह फैल चुकी कन्या भ्रूण हत्या पर अरुणजी ने इस संग्रह में दो कहानी दी हैं- ‘अनूठी प्रेरणा’ और ‘मुस्कुराती जिन्दगी’। इनमें समस्या के दोनों प्रमुख सामाजिक पहलुओं, क्रमशः चिकित्सकों की व्यावसायिक मानसिकता और भारतीय परिवारों में लड़कों को वारिस मानने की परंपरा और मानसिकता, पर प्रहार किया गया है। आजकल बेटियों की क्षमताओं को देखते हुए कई माताएँ अबार्सन से बचकर गर्भस्थ बेटी को जन्म देने का यथाशक्ति प्रयास करने लगी हैं। दोनों ही कहानियों में यह प्रयास देखने को मिलते हैं और प्रयासों के सुखद परिणाम भी। ‘अनूठी प्रेरणा’ की कथानायिका (गर्भस्थ बच्ची का माँ) महिला डाक्टर तथा ‘मुस्कुराती जिन्दगी’ की कथानायिका (गर्भस्थ बच्ची का माँ) अपनी सासू माँ की मानसिकता को बदलकर अपने प्रयास को परिणाम तक पहुँचाती है। 
     अन्य कहानियों में ‘बेटी’ शिक्षा जगत की विसंगतियों एवं ‘मन का सुख’ ज्योतिष और बाबागीरी के माध्यम से ठगी की धंधेबाजी पर चोट करती हैं। वहीं ‘फरिश्ता’ में मेहनतकश और आर्थिक रूप से वंचित वर्ग की संवेदनशीलता को अभिव्यक्त किया गया है। बहुधा मेहनतकश और आर्थिक रूप से वंचित वर्ग के लोगों के प्रति कथित शिक्षित और मध्यम व संपन्न वर्ग के लोगों की धारणा अच्छी नहीं होती है। कुछ घटनाओं को आधार बनाकर गलत धारणाएँ मन में बैठा ली जाती हैं। जबकि संवेदनशीलता और ईमानदारी अपने वास्तविक और निस्पृह रूप में कथित वंचित वर्ग में आज भी बची हुई है। ‘फरिश्ता’ में एक बुजुर्ग रिटायर्ड प्राचार्य को ट्रेन पकड़नी है, उनकी जेब कट जाती है और ट्रेन छूटने ही वाली है। हार्ट पेशेंट और भूख-प्यास व घबराहट से परेशान उन बुजुर्ग को एक संभ्रांत व्यक्ति अपनी बोतल से एक घूँट पानी देने तक से मना कर देता है, वहीं एक युवा कुली न सिर्फ ट्रेन पकड़ने में उनकी मदद करता है, अपनी मजदूरी भी नहीं लेता। उल्टा उन्हें अपनी ओर से आर्थिक मदद का प्रस्ताव भी करता है। 
      निसंदेह डॉ. ‘अरुण’ जैसे वरिष्ठ साहित्यधर्मियों के ऐसे अनुभव आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते हैं। डॉ. अरुणजी स्वयं नैतिक मूल्यों की प्रतिमूर्ति हैं। समाज में व्याप्त अनैतिकता और विसंगतियाँ उन्हें गहरे तक उद्वेलित करती हैं। इस उद्वेलन को वह रचनात्मक सृजन में बदलते हुए अपने विचारों और जीवन-मूल्यों को पीढ़ियों के अन्तर्मन में संप्रेषित और संचारित करने का प्रयास करते हैं। यह कहानी संग्रह भी उनके ऐसे प्रयासों की जीवंत कड़ी है।

‘मन का सुख’: कहानी संग्रह : डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा ‘अरुण’। प्रका. : सस्ता साहित्य मंडल, एन-77, पहली मंजिल, कनॉट सर्कस, नई दिल्ली-1। मूल्य: रु 150/-, सं.: 2017। 
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