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शुक्रवार, 26 मई 2017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



प्रो. बी. एल. आच्छा

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खुरदुरेपन में रिश्तों को सहेजती लघुकथाएँ
      ‘अस्थायी चार दिवारी’ वाणी दवे का पहला लघुकथा संग्रह है। हिन्दी लघुकथा क्षेत्र में यह पहली दस्तक इसलिए आश्वस्त करती है कि इनके भीतर पारिवारिक रिश्तों, संगत-असंगत परिदृश्यों, आर्थिक-सामाजिक स्तरभेद, आधुनिकता और कर्त्तव्यबोध, अभिव्यक्ति की आज़ादी और चैनलों पर प्रायवेसी की हत्या की, जातीय स्तर भेद और उनको ठेलकर सकारात्मक रचनाधर्मिता की वह सहभागी भी है। यही नहीं इन लघुकथाओं में पंचतंत्र की कथा शैली, दृष्टांत कथाओं, कथाकथन पद्धति और डायरी शैली के प्रयोग शिल्पगत तलाश की प्रवृत्ति का परिचय देते हैं।
      इस संग्रह की अधिकतर लघुकथाएँ पारिवारिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बनते-बिगड़ते परिदृश्यों को रचती हैं, परन्तु मूल्य-सापेक्ष नज़रिया संवेदनात्मक स्पर्श लिए हुए है। ये लघुकथाएँ जीवन की कठोरताओं और विडम्बनाओं में उन कोमलताओं को सँवारती है, जो जीवन के बेहतर रसायन हैं। ‘तेरी बदसूरत माँ’ में माँ का बिन-जतलाया त्याग है जो बचपन में बेटे की बदसूरती को सँवारने के लिए अपनी आँख दे देती है, पर बेटा एक आँख वाली माँ से शर्मिन्दा है। वात्सल्य और मातृत्व के ये रसायन इन लघुकथाओं को भाव-संवेदी बनाते हैं। ‘रंग’ लघुकथा में भी युवा बच्चे माँ के वैधव्य की उदास सफेदी को रंगों से छिटका देते हैं। ‘बौने पापा के मजबूत कंधे’ में बौनेपन के बावजूद बच्चों में खुशियों का उजास भर देने वाले पिता की अक्षय ऊर्जा है। ‘उँगली’ में रिश्तों का स्मृति भय और कोमल स्पर्शों को उकेरता अहसास है। ‘ट्रेनिंग’ में बेटी को अन्नपूर्णा बनाने की सहज शिक्षा है जो ससुराल में उसे खुशहाल बना देती है।  ‘घर’ लघुकथा में दीवारों पर पानी छिड़कने वाले वृद्ध पिता का समर्पित भाव है जो उम्र की जंग में घर की नींव को कमजोर नहीं होने देता। ‘जानकी भवन’ में बेटी के टूटते घर को जोड़ता ममत्व है, जो बेटे के गृह-प्रवेश में अनुपस्थित रहकर भी पूरे परिवार को जोड़ता है। 
      पारिवारिक पृष्ठभूमि में ही पति-पत्नी के रिश्तों में कहीं तल्खि़यों के चित्र हैं तो कहीं दाम्पत्य से लिपटते भावनात्मक रसायन। ‘पूर्ण विराम’ में वह पत्नी भी है, जो शराबी पति की हत्या में भी प्रसन्नता का अनुभव करती है तो ‘क़ीमती’ में दाम्पत्य के रिश्तों का गठबंधन उम्र के चौथेपन में भी ‘अँगूठी’ से प्रेम-वलय बनाता है। या कि ‘डायरी’ के हाथ लगने पर पत्नी में पति की प्रतिमा ही नया रूप गढ़ लेती है। ‘दंपत्ति’ लघुकथा में वृद्ध दंपति के केनवास पर पति-पत्नी के अहमीले संसार को रचा गया है, जिसकी परिणति टूटते-बिखरते दाम्पत्य के हँसते-मुस्कुराते गठजोड़ में हो जाती है। लेकिन ‘तरीका’ लघुकथा में तो नगरवधू ही दाम्पत्य की सकारात्मक सीख देती है, व्यथाओं के भीतर दूसरों के लिए प्रेम की योजकता की। ‘सेटलमेन्ट’ में ‘मंगलसूत्र’ के लिए वृद्धा पुलिस से सेटलमेन्ट नहीं करती।
      माता-पिता और संतति के रिश्तों के बीच लगाव और अलगाव, सेवा संस्कार और विस्थापन भरे अकेलेपन इन लघुकथाओं को संवेदनशील बनाते हैं। ‘इंटीरियर’ में नयी पीढ़ी का संस्कार पुरानी पीढ़ी को भी स्तब्ध कर देता है जब माता-पिता के पुराने चित्रों को हटाने से नाराज़ माता-पिता चाँदी की फ्रेम में उनके माँ-बाप के सुसज्जित चित्रों को देखते हैं। लेकिन दूसरी ओर ‘टाइल्स’ लघुकथा में वह पुत्र भी है जो अपने ‘आदर्श पुत्रत्व’ की प्रतिमा गढ़ने के लिए फ्रि़क्रमंद है, न कि श्रद्धा भाव से विनत। ‘उत्तरकार्य’ में तो पैकेज संस्कृति में पलते युवाओं पर अविश्वास करते हुए माता-पिता जीवित ही अपने उत्तरकार्य निपटा देते हैं। लेकिन वृद्धावस्था का अकेलापन या विदेश में पलती संतानों की बाट जोहते माता-पिता की विकल अवस्था के चित्र भी इन लघुकथाओं को व्यापक फ़लक देते हैं। ‘अकेलापन’ और ‘रिस्क’ इसी भावबोध की लघुकथाएँ हैं। पर मजदूर परिवार के पिता-पुत्र का वह रिश्ता पाठक को बेधता है, जब शराबी पिता बीमारी के बावजूद पुत्र द्वारा कमाये गये पचास रुपये छीनकर उसे ‘दुआ’ देता है। ‘गुलमोहर’ में माँ की गुलमोहर से सजी अर्थी से उपजी बाल-कल्पना अन्तरस्पर्शी है।
      इन लघुकथाओं में सामाजिक-आर्थिक स्तरभेद के चित्र भी उस खाई को दर्शाते हैं, जो समता की ज़मीन को पटने नहीं देती। ‘अस्थायी चार दिवारी’ में मकान बन जाने पर विस्थापित हुए मजदूर की व्यथा है। अब का यह अर्थशास्त्र पूँजी के जबड़ों में कितना बेचैन है, जो नीले आकाश के हवाले ही ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर है। जातिवाद का देश हमारे समाजशास्त्र का अनपटा सामाजिक धरातल है; ‘किसकी बलि’, ‘खाई’ लघुकथाओं में जातीयता के ऊँचे-नीचे एहसास समता के संस्कार उगने ही नहीं देते। लेेकिन ‘फिरकी’ में आर्थिक स्तरभेद का अहंकार बड़े नोटों में इठलाता है, पर खुल्ले के लिए उनको भी छोटों के पास ही आना पड़ता है। मिडिल और हाई के गुमान का लेखिका ने समय की समझ में परोसा है- ‘फिरकी को पहले हम चलाते थे जबकि आज उसे समय की हवा चला रही है।’ ‘किरदार’ में नारी-पुरुष विमर्श की झलक है, जहाँ पुरुष की नारीमय समझ और नारी का समर्पित प्रेेम दाम्पत्य कीर्ति बन जाते हैं। इन लघुकथाओं में समलैंगिकता, चैनलों की असीमित आज़ादी, वृद्धों के साथ मजाकिया सलूक, किन्नरों की व्यथा, पुलिसिया रिश्वतनामा, ईमानदार कर्मियों को फँसाने की केकड़ा-प्रवृत्ति, नारों में जीता सरकारी तंत्र, शरीफों की नाज़ायज हरकतें, पैकेज संस्कृति, पारिवारिक रिश्तों का स्वार्थी अंदाज़, आरोपों में जीते ईमानदार पारिवारिक रिश्ते, गोदामों में सड़ता अनाज और दानों के लिए मोहताज ग़रीब बच्चे जैसे अनेक विषय इन लघुकथाओं को वैविध्य प्रदान करते हैं।
      लेखिका ने पंचतंत्र शैली के प्रयोग भी किये हैं। ‘विश्वास’ में पक्षियों के माध्यम से बड़ों के बजाय जड़ों से जुड़ने की सीख है। ‘अवसाद’ में सहकार से अवसाद को बहार में बदलने की शिक्षा दी गयी है। ‘निवाला’ में पशुओं में अग्रगामी बने मातृत्व को उकेरा गया है। बूढ़ा घोड़ा, पत्थर, बड़ी मछली, तमाचा जैसी लघुकथाएँ बोधकथा या दृष्टान्त शैली में रची गयी हैं। ‘अनाज: तीन दृश्य’ में भी प्रयोगी शिल्प देखा जा सकता है। लेकिन अधिकतर लघुकथाएँ कथा-कथन शैली की हैं। प्रयोगशीलता के बावजूद यह कहना असंगत न होगा कि इन लघुकथाओं में कथा-धैर्य के बावजूद कसावट का अभाव है। कथन की सरलता जहाँ इन लघुकथाओं को आसान बनाती है, वहीं नाटकीय मोड़, क्रियात्मकता, घात-प्रतिघात, संवादीपन का वैसा नियोजन नहीं है, जो इन लघुकथाओं को  अधिक प्रभावी बना सकता है। अलबत्ता इन लघुकथाओं में एक नज़रिया है, जो कहीं न कहीं सामाजिक-पारिवारिक स्तर पर सँवारने के लिए प्रतिबद्ध है। कभी-कभी तो वह उद्घोषक बनकर रचनाकार को सामने ले आता है। पर सामाजिक सत्यों को समाज-भाषा में ही कहने और कभी-कभी सूक्ति वाक्यों को गढ़ने की ताक़त लेखिका के भाषाधिकार को भी दर्शाती है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि भाषागत कतरव्योंत, नाटकीय मोड़ों का सृजन और संवादी-सक्रियता, भविष्य की लघुकथाओं में उतरकर आएँगे, जिनके बीज-संस्कार इन लघुकथाओं में विद्यमान हैं।
अस्थायी चार दिवारी : लघुकथा संग्रह : वाणी दवे। प्रकाशक : जैनसन प्रिन्टर्स, इन्दौर। मूल्य: रु. 150/- मात्र। संस्करण: 2016।
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