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शनिवार, 27 अगस्त 2016

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  5,   अंक  :  05-12,  जनवरी-अगस्त  2016



।। जनक छंद ।। 

सामग्री :  इस अंक में डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ के जनक छन्द।



डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’





पाँच जनक छन्द

01.
सूरज चंदा आँख हैं
भाव और भाषा भले
मेरे दोनों आँख हैं।।
02.
जग की करता सैर मैं
सब की माँगूँ खैर मैं
नहीं जानता बैर मैं।।
03.
पन्थ नहीं जब सूझता
पथिक धुन्ध से जूझता
भावी कैसे बूझता।।
04.
आटा किसी गरीब का
यदि वर्षा में भीगता
होता मरण नसीब का।
05.
थोड़ी पूँजी साँस की
वह दुष्कर्मों में गई
फँसी गले में फाँस-सी।
06.
पुण्य किया तो सुख लिया
लाभ उगाया भाग्य का
नया जन्म सुख से जिया।
07.
औरों का यदि दुख दिया
काँटे बोये लूनिये
पद-पद पर दुख जिया।
08.
नृप तरु झुलसे शीत से
धनी भोगते सुख सभी
बने शीत के मीत-से।।
09.
पूस बिलौटा पी गया
शक्ति दूध को शीत बन
ऊन ओढ़ता जी गया।।
10.
रेखाचित्र :
बी. मोहन नेगी 
कर्म धर्म प्रत्यक्ष है
श्रद्धा गुणवत्ता भरे
तभी धर्मकृत दक्ष है।।
11.
आते जाते वर्ष हैं
अन्यों को सुख दे सकें
उनको प्रति पल हर्ष हैं।।
12.
‘ओम’ धर्म हित काम कर
वह पूँजी दे राम को
पहुँचेगा हरि धाम पर।
13.
पौष मास की ठंड है
धनी चबाते गज्जकें
निर्धन को ज्यों दण्ड है।।
14.
धर्म-धर्म चिल्ला रहे
पैसा खूब कमा रहे
भक्तों को भरमा रहे।।
15.
अर्जुनसुत लड़कर मरा
किन्तु जयद्रथ जीतकर
दिन में छिप डर डर मरा।


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