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रविवार, 6 जुलाई 2014

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10, मई-जून  2014


।। कथा प्रवाह ।।


सामग्री :  इस अंक में डॉ. सतीश दुबे, श्री हरनाम शर्मा, सुश्री सुदर्शन रत्नाकर, सुश्री शोभा रस्तोगी, श्री मधुकांत, एवं श्री विजय गिरि गोस्वामी ‘काव्यदीप’ की लघुकथाएं।


डॉ. सतीश दुबे



{वरिष्ट लघुकथाकार डॉ. सतीश दुबे साहब की इक्कीसवीं सदी में सृजित एवं चर्चित कवि श्री जितेन्द्र चौहान द्वारा संकलित/संपादित 51 लघुकथाओं का संकलन ‘इक्कीसवीं सदी की मेरी इक्यावन लघुकथाएँ’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। डॉ. दुबे साहब ने लघुकथा में संवेदना के अनेकानेक आयामों स्थापित किया है, साथ ही उसे अपने समय से जोड़ने के प्रति वह हमेशा सजग रहे हैं। इसे इस संकलन में भी देखा जा सकता है। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से कुछ प्रतिनिधि लघुकथाएं।}

01. इजहार
    व्हील चेयर पर अपने को धकियाते हुए वे बाहर के ग्राउंड से अंदर के कमरे तक पहुँचे। हमेशा की तरह चेअर से उन्होंने अपने को दीवान पर शिफ्ट किया। अपनी बैठक को पूरी तरह व्यवस्थित कर लेने के बाद उनकी निगाह सेंट्रल टेबल पर जाकर टिक गई।
    उन्होंने देखा, उनके मोबाइल से एकदम सटकर पत्नी का मोबाइल रखा हुआ है। शहर या बाहर फैले हुए बेटे-बहू, बेटी-दामाद, पौत्र-पौत्री, नाती-नातिन, भाई-भौजाई यानी किसी की भी रिंग-दस्तक आने पर चर्चा चुहुल या कुशल-क्षेम का अवसर चूक नहीं जाए, इसलिए ‘जान से भी ज्यादह’ हमेशा साथ रहने वाला यह मोबाइल आज यहाँ कैसे? और वह भी उनके मोबाइल के पास ऐसे बैठा हुआ मानो कोई गुफ्तगू कर रहा हो।
     उन्होंने अपनी जिज्ञासा भरी ऊहापोह स्थिति से निजात पाने के लिए किचन में खट्ट-पट्ट कर रही पत्नी को हमेशा मुबज आवाज लगाई- ‘अरे सुनना जरा....।’
     ‘दो मिनट में आई....।’ आँखों के ‘क्या बात है’ शब्द-संवाद के साथ वह सचमुच दो मिनट में सामने आकर
रेखा चित्र : बी. मोहन नेगी 
खड़ी हो गई।

    ‘तुम्हारा यह अजीज मोबाइल आज यहाँ, इस प्रकार, इस हालात में...?’
     ‘‘आज ‘वेलेन्टाइन-डे’ है ना, इसलिए...!!’’ भरपूर मुस्कुराहट के कारण उभरे कपोलों वाले उनहत्तर वर्षीय भावुक चेहरे को उनकी ओर स्थिर करते हुए पत्नी ने प्रत्युत्तर किया।

02.  बुहारनी
     बेटे के कंपनी आफिस से लौटने में ज्यादह ही विलंब हो गया था। प्रतीक्षा में विचलित ‘कहाँ हो आप’ ‘बहुत देर हो गई क्या बात है’ जुमलों के साथ विचलित होकर बहू मोबाइल पर बार-बार कॉन्टेक्ट करने की कोशिश कर रही थी।
     मेवाड़ के रेतीले क्षेत्र में बिखरी-छितरी की अपेक्षा समुन्नत ढाणियों वाले ग्राम से भेंट के लिए आए महेशजी का ध्यान बातचीत करते हुए बार-बार उसकी गतिविधियों की ओर जा रहा था। इस बार बहू की कॉल जैसे ही समाप्त हुई वे उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते हुए बोले- ‘‘बहूरानी, यहाँ बैठिए। रिलेक्स होने के लिए मैं आपको एक बात बताता हूँ। भैया के लौटने में हो रही देरी से जैसी बेचैनी आप महसूस कर रही हैं, वैसी ही हमारे इधर की औरतें और मेरी पत्नी भी। पर ज्वाइंट-फैमिली में चेहरे से नीचे तक का छेड़ा काढ़ने के कारण उसके लिए यह संभव नहीं होता कि वह मोबाइल कॉन्टेक्ट करे या सास-ससुर से अपनी बेचैनी शेयर करने के लिए यह पूछे कि ‘क्या बात है वे अभी तक क्यों नहीं आए।’ रेतीला-एरिया होने के कारण, हमारे यहाँ रेत के बगुलें बहुत उड़ा करते हैं। इसलिए वह करती यह है कि आंगन साफ करने के लिए बुहारी लेकर बाहर जाती है और घूंघट ऊँचाकर चकोर जैसी निगाहें घर आने वाली वाट यानी रास्ते पर स्थिर कर देती है। कभी-कभी तो आंगन-बुहारी के इस काम की पुनरावृत्ति संतोष नहीं होने तक चलती रहती है।’’
     ‘‘झाडू लेकर बेसमय बार-बार बाहर आने-जाने पर आपकी माँ यानी उसकी सासजी टोंका-टाकी नहीं करती....।’’
     ‘‘नहीं। इसलिए कि इसी दौर से गुजरने के कारण, इसकी बजह से वह भी मन ही मन बखूबी परिचित होती है।’’
     महेशजी द्वारा दिए गए इस अजीबो-गरीब नए ज्ञानदान से बहू की बेचैनी सायास मुस्कुराहट में बदल गई तथा उसी अंदाज में हम दोनों की ओर देखकर बोली- ’’टोटका करने के लिए झाडू लेकर फिर तो मुझे भी आंगन बुहारने के लिए बाहर जाना पड़ेगा।’’

03. आकाशी छत के लोग
     बालकनी में बैठे-बैठे आसपास की लंबी सैर करने के बाद दृष्टि सामने के जिस मैदान पर स्थिर हो जाया करती है, आज वह वहीं खड़ा था।
      निपट अँधेरे के बीच आग से निकलने वाले स्वर्णिम प्रकाश में दमकते हुए अनेक चेहरे। हथेलियों से रोटियाँ 
रेखा चित्र : शशिभूषण बडोनी 
थेप रही औरतें, उनके आसपास बैठे आदमी, बच्चे-खच्चे। ‘आए की खिलाव मोटी-छोटी रोटी, पिलाव प्यासे को पानी’ आदर्श के सामने मत्था टेक वह उनकी हँसी-खुशी के वातावरण में खे गया।

     ‘‘आप लोग कहाँ के रहने वाले हैं?’’
     ‘‘रेणे वाले तो राजस्थान मेवाड़ में हैं जी, पर ये पूरी धरती माता हमारा घर और आसमान हमारी छत है जी, और साबजी आप...? 
     ‘‘वो सामने वाली बिल्डिंग की तीसरी मंजिल के बीच वाले फ्लैट में....।’’
     इशारे की अंगुली वह नीची भी नहीं कर पाया था कि, बातचीत में हस्तक्षेप कर मुखर हो रही एक युवती हाथ हिलाते हुए बोली- ‘‘ऐसा कैसा घर जी आपका, जां से न धरती छी सको, न आसमान देख सको....।’’
     टिप्पणी सुन हतप्रभ सा निरुत्तर-मुद्रा में वह युवती की ओर देखने लगा। वह समझ नहीं पा रहा था, संवाद का अगला सिलसिला कहाँ से शुरू करे।

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.) // मोबाइल : 09617597211



हरनाम शर्मा





{सुप्रसिद्ध कवि एवं लघुकथाकार हरनाम शर्मा का लघुकथा संग्रह ‘अपने देश में’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। उनके संग्रह से प्रस्तुत है उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएं।}

01. घूसखोर
     परसराम चपरासी ने फेंटे से दो रुपये का नोट निकाल कर जज साहब के साथ बैठे मुहर्रिर को दिया- ‘‘साहब, पन्द्रह दिन बाद तारीख लगा दो, घरवाली के बच्चा होया है।’’
     जज साहब ने बुरा सा मुँह बना कर नजरें फेर लीं। इतने में दो का नोट मुहर्रिर ने जेब में सरकाया, तारीख फाइल पर झरीटी, आँख मारी, परसराम चलता बना।
     परसराम चपरासी पर दस रुपये की घूसखोरी का केस पिछले आठ माह से चल रहा है। 

02. ट्यूशन-2
    हालांकि ‘मास्टर जी’ शब्द से चिढ़ने वाले अधेड़ उम्र के उस भद्र पुरुष मोहन लाल का मन साइकिल चलाने
छाया  चित्र : उमेश महादोषी  
का नहीं था, फिर भी उन्होंने इस नई ट्यूशन से इन्कार नहीं किया। पूरे दो मील चलकर उन्होंने एक कोठी के सामने अपनी साइकिल रोकी। घण्टी बजाई, एक श्याम वर्ण स्त्री, संभवतः उस बच्चे की मम्मीजी बाहर आई। श्री मोहन लाल जी ने अपना परिचय दिया। स्त्री ने मुड़कर आवाज लगाई- ‘‘राहुल! जरा नीचे आओ, आपका नया मास्टर आया है।’’ 

     श्री मोहन लाल जी को सभी कुछ तेजी से घूमता नज़र आया। बुरी मरह सिर चकराया। फिर भी उन्होंने हिम्मत बाँधी और उन्हें लगा कि वे कहने ही वाले हैं कि बोलने की तमीज़ नहीं है तो अपना भद्दा मुँह न खोलो, लेकिन ऐन मौके पर उन्हें रमेश की फीस, लड़की का विवाह, कच्चा मकान और न जाने क्या-क्या याद हो आया।
     वे धीमे कदमों से अपने को लोहे के मजबूत गेट के सहारे सम्भालते हुए, कोठी के अन्दर आ गये और स्त्री का इशारा पाकर ड्राइंग रूम में ‘शिष्य’ के आने का इन्तज़ार करने लगे।

इम्पोर्टिड
     वर्ग-भेद सिद्धान्त को पढ़-समझ कर आ रहे एक तरुण विद्यार्थी ने जब ठंडी रात को अपने से कुछ दूर आगे एक संपन्न दंपत्ति को सैर करते पाया तो उसका माथा ठनका। महिला का मेकअप स्कार्फ से सैडिंलों तक खूबसूरती से मैच कर रहा था, तो पुरुष के ओवरकोट पर फर की टोपी भी सड़क की ट्यूब लाइट की रोशनी में दमक रही थी। युवक को उनका रंग-ढंग पूरी तरह पूंजीवादी लगा।
     उसने अपने चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त कोट को काट-छांट कर बनाया गया अपना
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 
कोट देखा और मफलर कानों पर कसा। फिर अपनी खटारा साइकिल दौड़ा कर उनके निकट से निकलते हुए उसने ललकार कर कहा, ‘‘रास्ता छोड़, बूर्ज्वा....’’ और भद्र पुरुष की टोपी खींच ली। अब वह अंधाधुंध पैडल मारते हुए साइकिल को बेतहासा भगा रहा था। करीब आधा मील जाकर ‘सर्वहारा’ साइकिल उसके जवान पैरों का जोर न झेल पाई और तड़ाक् से पैडल टूटकर अलग हो गया। सवार, साइकिल समेत धड़ाम से जमीन पर आ गिरा। उसे लगा उसका वही हाथ चटक गया है जिसमें वह टोपी संभाले हुए था।

      अगले दिन दवा-दारू के लिए अस्पताल चलते समय उसने रात को उड़ाई गई टोपी भी सिर पर रख ली। डाक्टर साहब ने पलस्तर करते हुए मधुर स्वर में पूछा- ‘‘मिस्टर, यह टोपी बहुत सुन्दर है! कहां से मिली?’’
     ‘‘जी, इम्पोर्टिड है....’’ उसने सगर्व कहा।
     ‘‘और ... आपके विचार ....?’’ डाक्टर साहब की रहस्यात्मक, अर्थपूर्ण मुस्कान उसके भीतर तक उतर गई।

  • ए.जी. 1/54-सी, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018 // फोन : 011-2554353 मोबा. : 09910518657 



सुदर्शन रत्नाकर






अभिशाप

           ‘‘माँ बहुत भूख लगी है। कुछ खाने को दे दो न माँ। कल रात भी कुछ नहीं खाया था। माँगने पर बापू ने पीट दिया था। उठो न माँ, कुछ बना कर दे दो न। भूख के मारे मुझ से बोला भी नहीं जा रहा।’’
           सात वर्ष का किसना बार बार माँ को झकझोर कर उठा रहा था, पर वह उठ ही नहीं रही थी। उसका पेट भूख से कुलबुला रहा था। उठ कर उसने गिलास में रखा
थोड़ा पानी पीया। लेकिन उससे भूख मिटने की उसे मितली होने लगी। ख़ाली पेट में पानी अंदर काट रहा था। उसने इधर-उधर रखे बर्तनों, पोटलियों में देखा, कुछ भी खाने को नहीं था।
छाया चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
    
       वह झोंपड़ी के बाहर आ कर बैठ गया। ठंडी हवा का झोंका उसके शरीर को छूता हुआ आगे निकल गया। पल भर को उसका मितलाता मन थोड़ा स्थिर हुआ लेकिन ख़ाली अंतड़ियाँ फिर कुलबुलाने लगीं थीं। वह भीतर आ कर माँ को फिर जगाने लगा। रात उसे ताप था शायद इसलिए नहीं उठ रही, उसने माँ का माथा छुआ, फिर हाथ, फिर पाँव। यह क्या! माँ तो एकदम ठंडी पड़ी थी। उसने उसके चेहरे को अपनी ओर घुमा कर देखा, पर वह लुढ़क गया। माँ मर गई थी और बापू शराब के नशे में धुत अभी भी सो रहा था।

  • ई 29, नेहरू ग्राउँड, फ़रीदाबाद-121001 // मोबा. :  09811251135



शोभा रस्तोगी                    




उत्तरित प्रश्न

     मनमोहक, अद्भुत सत्संग पंडाल। विशाल जनसमूह। श्री श्री 1008 महामंडलेश्वर योगी जी का प्रवचन। चेहरे पर अपूर्व चमक, ओजस्वी वाणीए भगवा वस्त्र। साथ विराजमान थी- योगिनी देवी। खुले लम्बे सर्पीले केश, नूरानी चेहरा, मधुर कोकिल वाणी। श्रोता हिप्नोटाईज्ड। शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी, नेता, संभ्रांत नागरिक, सभी ने देर तक चले सत्संग का भाव-विभोर आनंद लिया। दान, त्याग, सन्यास, निर्वाण का उपदेश श्रवण किया। सुमधुर भजनों का आनंद लिया। अंत में सब वही छोड़ महँगी स्वादिष्ट भोज्य सामग्री का प्रसाद ले

अपने संसार को लौट चले।
छाया चित्र : नरेश उदास 
    योगिनी देवी के साक्षात्कार हेतु वह उनके कमरे तक गयी। प्रश्नों के औपचारिक उत्तर प्राप्त हुए। उत्कंठा थी उनके लावण्य से लकदक चेहरे का राज जानने की। वाकई उन्हें ईश तत्व अवगत हुआ है या उन पर योगी जी की चमत्कृत छाया है। पर खुल न पाई। अनबुझे प्रश्नों को छुपा चल दी। चौखट तक पहुँची ही थी कि उमड़ते प्रश्नों ने पुन; पलटा दिया उसे। पलटते ही पाया। दीवार के मध्य मार्ग से आते योगी जी ने योगिनी जी को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया था। बुदबुदाए उनके अस्फुट स्वर- ‘‘किस साक्षात्कार में घिरी हो तुम? कुछ मेरी वेदना की भी तो सोचो....’’
मेरे प्रश्न अब उत्तरित थे।

  • आर.जेड. एण्ड डी-208-बी, डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर-2, पालम कालोनी, नई दिल्ली-110077 // मोबा. : 0 9650267277           

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