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रविवार, 30 मार्च 2014

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 07-08, मार्च-अप्रैल 2014 

          {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति(एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें। स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा। }


।।किताबें।।

सामग्री : इस अंक में डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन "पड़ाव और पड़ताल" की श्री ओम प्रकाश कश्यप द्वारा लिखित समीक्षा। 

{पड़ाव और पड़ताल के अब तक दो खंड प्रकाशित हुए हैं। प्रथम  खंड का संपादन  स्वयं मधुदीप जी ने किया हैं और उसके दो संस्करण आ चुके हैं। प्रथम खंड में सर्व श्री अशोक वर्मा, कमल चोपड़ा, कुमार नरेन्द्र, मधुकान्त, मधुदीप, तथा विक्रम सोनी कि 11-11 लघुकथाएं शामिल हैं।  लघुकथाओं पर  प्रो० सुरेशचन्द्र गुप्त,  डॉ0 स्वर्ण किरण,  डॉ0 विनय वश्वास,  प्रो० रूप देवगुण,  एवं श्री भगीरथ, डॉ0 सतीश दुबे, डॉ0 सुलेखचंद्र शर्मा की समीक्षाएँ तथा लघुकथा पर समग्र आलेख  डॉ0 कमलकिशोर गोयनका जी का है। डॉ. बलराम अग्रवाल के संपादन में दूसरे खंड में सुश्री चित्रा मुद्गल, सर्व श्री जगदीश कश्यप, बलराम अग्रवाल, भगीरथ, युगल और श्री सुकेश साहनी की 11-11 लघुकथाएं तथा इन पर क्रमशः श्री भारतेंदु मिश्र, श्री सुभाश चंदर, डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, डॉ. उमेश महादोषी, प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार तथा ऋषभदेव शर्मा का समीक्षात्मक आलेख हैं। सभी लघुकथाओं का समग्र मूल्यांकन करता प्रोफेसर मृत्यंजय उपाध्याय का आलेख है। पूर्वपीठिका डॉ. शकुंतला किरण ने  लिखी है। प्रथम खंड का मूल्य रु 250/- तथा दूसरे खंड का मूल्य रु 350/- रखा गया है।}

ओमप्रकाश कश्यप




हिंदी लघुकथा के महत्त्वपूर्ण पड़ावों की पड़ताल

     समीक्षित पुस्तक ‘पड़ाव और पड़ताल’ विशिष्ट पुस्तक योजना की दूसरी कृति है। संपादक और प्रकाशक की योजना लघुकथा आंदोलन के सुपरिचित चेहरों के लेखकीय अवदान को समालोचना के साथ प्रस्तुत करने की है। पुस्तक में छह वरिष्ठ लघुकथाकार अपनी ग्यारह-ग्यारह प्रतिनिधि लघुकथाओं के साथ मौजूद हैं। रचनाकारों में सुश्री चित्रा मुद्गल, जगदीश कश्यप, बलराम अग्रवाल, भगीरथ, युगल और सुकेश साहनी सम्मिलित हैं। ये सभी लघुकथा आंदोलन से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। आज यदि लघुकथा को लगभग सभी पत्रिकाओं में सम्मानजनक स्थान प्राप्त है, वह सफलता के महत्त्वपूर्ण पायदान पर है, तो उसके लिए जगदीश कश्यप, बलराम अग्रवाल, भगीरथ, सुकेश साहनी आदि के अवदान को भुला पाना असंभव है। ‘पड़ाव और पड़ताल’ के दूसरे खंड में इन्हें सम्मिलित करना, प्रकारांतर में लघुकथा के इतिहास के दस्तावेजीकरण के काम को आगे बढ़ाना है। सम्मिलित लघुकथाकारों के रचनाकर्म पर क्रमशः भारतेंदु मिश्र, सुभाश चंदर, डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, डॉ. उमेश महादोषी, प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार तथा ऋषभदेव शर्मा का समीक्षात्मक योगदान है। साथ में संकलित लघुकथाओं का समग्र मूल्यांकन करता प्रोफेसर मृत्यंुजय का आलेख है। पूर्वपीठिका में डॉ. शकुंतला किरण ने हिंदी लघुकथा की विशेषताओं को रेखांकित किया है। पुस्तकमाला अपने आप में अनूठा प्रयोग है, जिसकी परिकल्पना का श्रेय लेखक और प्रकाशक मधुदीप को जाता है। प्रस्तुत खंड उसकी दूसरी कड़ी है, जिसका संपादन हिंदी के वरिष्ठ लघुकथाकार बलराम अग्रवाल ने किया है। पुस्तक में चूंकि रचनाकर्म और समीक्षाकर्म साथ-साथ प्रस्तुत हैं, इसलिए इस पुस्तक को समीक्षा की वैसी आवश्यकता नहीं है, जैसी अन्य पुस्तकों को पड़ती है।
     चित्रा मुद्गल को छोड़कर शेष पांचों लघुकथाकार हिंदी लघुकथा आंदोलन से गहराई से जुड़े हैं। चित्राजी की मूल विधा कहानी और उपन्यास है। लघुकथाएं उन्होंने कम ही लिखी हैं। मानवीय सरोकारों से लबरेज उनकी कहानियों में अनूठी पारिवारिकता और अपनापन रहता है। ‘पड़ाव और पड़ताल’ में संकलित लघुकथाएं भी उससे अछूती नहीं हैं। छोटी-छोटी घटनाओं को सूत्ररूप में उठाकर रचना का रूप देने में वे पारंगत हैं। वे उस दौर की लेखिका हैं जब हिंदी में नारीवादी लेखन उफान पर था। चित्राजी ने स्त्री-अस्मिता से जुड़े प्रश्नों को तो उठाया, किंतु बिना किसी नारेबाजी के। ‘उनकी कहानियों में नारीवादी शोर या नगाड़ा बजता दिखाई नहीं देता। उनके पात्र संवेदना के बहुरंगी स्वेटर पहने मिलते हैं, जिन्हें लेखिका सिलाई-दर-सिलाई(या सलाई-दर-सलाई?) स्वयं बुनती हैं।’(डॉ. भारतेंदु मिश्र) मानवीय संवेदना और सरोकारों की दृष्टि से ये हिंदी की बेहतरीन लघुकथाओं में जगह ले सकती हैं। इनमें हम उनकी सूक्ष्म विवरणों से रचना का वंदनबार सजानेवाली शैली को देख सकते हैं। चूंकि वे प्रतिबद्ध लघुकथाकार नहीं हैं, इसलिए कई बार उनकी लघुकथाएं लघुकहानी लगने लगती हैं। दूसरे उनकी रचनाओं में कहीं-कहीं अभिजातबोध दबे पांव चला आता है। 
     जगदीश कश्यप की छवि लघुकथा के हरावल दस्ते के प्रमुख सेनानी की रही है। अपने अक्खड़पन और साफगोई के लिए वे जीवन-भर विवादित भी रहे। विवादों के कारण घटती प्रतिष्ठा के बीच ‘आलोचकों के मजार नहीं बनते’ कहकर वे खुद को तसल्ली देते रहे। जीवन के कटु अनुभवांे का गहरा अनुभव उन्हें था। गरीब, बेरोजगार युवक अपनी खुद्दारी और स्वाभिमान की कीमत पर जीवन में जितने दंश सह सकता है, उससे कहीं ज्यादा दंश उन्होंने सहे थे। खलील जिब्रान को अपना गुरु मानने वाले जगदीश कश्यप ने दृष्टांत शैली में अनेक लाजवाब लघुकथाएं लिखीं। उनके सरोकार मुख्यरूप से जनसाधारण के प्रति थे, इसलिए अपनी सर्जना को रहस्यवाद में उलझाने के बजाय उन्होंने जीवन के करीब बनाए रखा। दृष्टांत शैली की उनकी लघुकथाओं में जीवन और समाज के अंतर्विरोधों को खुली जगह मिली है। वे आम आदमी के पीड़ा और आक्रोश को सामने लाती हैं दरअसल हिंदी लघुकथा आंदोलन से जुड़े रचनाकारों के आगे दो चुनौतियां थीं. पहली रचनात्मक यानी लघुकथा को कहानी के बरक्स खड़ा करने की. दूसरी उसके लिए समीक्षात्मक कसौटियों के निर्धारण की। जगदीश कश्यप ने यह काम उस्तादाना अंदाज में किया। इसलिए उनकी लघुकथाएं इस विधा की कसौटी पर खरी उतरती और एक मानक का काम करती हैं. एक लेखक के रूप में, ‘इस महान रचनाकार की सबसे बड़ी शक्ति है- संवेदनशीलता, मानवीय सरोकारों के प्रति गंभीरता, अव्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना तथा बेहद तीखा, पर महीन व्यंग्य... उनकी रचनाएं विसंगतियों में फंसे आम आदमी की पीड़ा का दस्तावेज हैं। वे बेचैनी की उपज हैं. अव्यवस्था के खिलाफ खड़े आदमी का बयान हैं, उसके रिसते घावों के साक्षात्कार हैं।’ (सुभाश चंदर, जगदीश कश्यप की लघुकथाओं का सच)। हर बड़ा साहित्यकार अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को रचना से दूर रखता है, जगदीश कश्यप छिछली भावुकता से बचे हैं। बकौल सुभाश चंदर, ‘उन्होंने जिस निम्न मध्यवर्गीय परिवार के दुख-सुख, निराशा-आशा और संत्रास को झेला, वही उनकी रचनाओं में प्रस्फुटित हुआ।’ अपने जीवन सत्य को युग-सत्य में ढाल देना किसी भी रचनाधर्मी के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। संग्रह में जगदीश कश्यप की ‘ब्लेक हार्स’, ‘दूसरा सुदामा’, ‘सरस्वती पुत्र’ जैसी बहुचर्चित लघुकथाएं शामिल हैं, जो हिंदी में मानक लघुकथा की भांति प्रस्तुत की जाती हैं।    
     बलराम अग्रवाल ने जगदीश कश्यप के साथ ही लघुकथा में प्रवेश किया और समर्पित भाव से उसे समृद्ध करने में जुटे रहे। लघुकथा आंदोलन से जुड़े दूसरे लेखकों की भांति उन्होंने भी रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन की दुहरी जिम्मेदारी को संभाला। उनकी लघुकथाओं में विषय बहुलता है। आजादी के बाद के हिंदी समाज के अंतर्विरोधों तथा सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल को उन्होंने एक जिम्मेदार लेखक की तरह उठाया है। इस संकलन में सम्मिलित उनकी ग्यारह लघुकथाओं में ‘बिना नाल का घोड़ा’, ‘लगाव, ‘भरोसा’ जैसी आम आदमी की जद्दोजहद और सामाजिक उथल-पुथल को दर्शाती हुई लघुकथाएं हैं। इनमें ‘लगाव’ का विषेश उल्लेख मुझे जरूरी लगता है। इसलिए कि हिंदी में ऐसी लघुकथाएं बहुत कम हैं। कहानी में ‘बाबूजी’ बेटा-बहू के साथ रहते हैं, दोनों उनका पूरा ध्यान रखते हैं। मनसद पर लेटे देख दर्द के अनुमान मात्र से बहू अपने पति से ‘मूव’ लाने को कह देती है. ऐसे ‘केयरिंग’ बेटा-बहू के रहते हुए बाबूजी व्यथित रहते हैं। यह व्यथा पत्नी का साथ छूट जाने की है। दिवंगत पत्नी की स्मृति को सहेजने के लिए वे मनसद को छाती से लगाए रखते हैं। कहानी दर्शाती है कि ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के अलावा भी व्यक्ति की कुछ आवश्यकताएं होती हैं। मनुष्य यदि अकेलापन अनुभव करने लगे तो सुख-सुविधा के बाकी साधन उसको वांछित तसल्ली नहीं दे पाते। शायद इसीलिए अरस्तु द्वारा दी गई परिभाषा, ‘मनुष्य विवेकवान प्राणी है’- में आज तक कोई बदलाव संभव नहीं हो सका। समाज मनुष्य का विवेक और जरूरत है, यह अरस्तु की परिभाषा दर्शाती है; और यह कहानी भी। लेखक का काम पाठक के अकेलेपन को भरना ही नहीं, उन स्थितियों को भी उजागर करना है, जो उसके अकेलेपन का सबब बनती हैं। इस लघुकथा में इसे बाखूबी देखा जा सकता है।
     यहां डॉ. शकुंतला किरण के लेख से संदर्भ लेना प्रासंगिक समझता हूं। वह इसलिए कि हिंदी लघुकथा में आज जो बिखराब या द्रृष्टिभ्रम की स्थिति है, वह कहीं न कहीं आलोचकीय दिशाहीनता से भी प्रेरित है। डॉ. किरण ‘भाषागत सादगी, सहजता और स्वाभाविकता’ को लघुकथा की शिल्पगत विशेषता मानती हैं. उनके अनुसार ‘व्याकरण सम्मत चमत्कारिकता व पांडित्य प्रदर्षन से रहित जनसामान्य दैनिक जीवन में बोलचाल की सहज, स्वाभाविक सीधी-सादी भाषा ही लघुकथा में मिलती है। जो कथ्यगत पात्रों के अनुरूप ही चुटीली, पैनी, व्यंग्यात्मक, आंचलिक अथवा सपाट हो जाती है।’ यह अपने आप में विरोधाभासी है। उनकी अगली टिप्पणी और भी चौंकानेवाली है, ‘‘लघुकथा छापामार कला है, यह ‘चोट करो और भाग जाओ’ वाली नीति को उजागर करती है।’’ जो विधा ‘सादगी, सहजता और स्वाभाविकता’ को अपना भाषायी गुण मानती हो, वह छापामार कला हो ही नहीं सकती। लघुकथा को लघ्वाकार रखने और उसे सार्थक समापन देने के लिए जितनी मेहनत लघुकथाकार को करनी पड़ती है, उतनी शायद कहानीकार और उपन्यासकार को नहीं। यह काम ‘चोट करो और भाग निकलो’ वाली शैली में संभव नहीं है। हिंदी लघुकथा में जो चुटुकलेबाजी है, उसके पीछे समीक्षा के ये घटिया मापदंड भी हैं। इस विरोधाभास के सूत्र हम लघुकथा आंदोलन के समय की पड़ताल में खोज सकते हैं। आजादी के बाद ही हिंदी में विधाओं के अस्मितावादी आंदोलन शुरू हो चुके थे। जिन दिनों लघुकथा आंदोलन अपने शिखर पर था, व्यंग्य अपनी पहचान बना चुका था। बदले समाजार्थिक परिवेश तथा राजनीतिक क्षरण पर सटीक, चुटीली शैली के कारण परसाई, जोशी जैसे व्यंग्यकार पर्याप्त ख्याति बटोर चुके थे। इसका प्रभाव लघुकथाकारों पर भी पड़ा. व्यंग्य की बढ़ती प्रतिष्ठा से प्रेरित होकर कुछ व्यंग्यकारों ने लघुकथा को ‘लघु व्यंग्य’ कहना आरंभ किया तो कुछ वक्रोक्ति, विदग्धता, कटाक्ष, तंज आदि को जो व्यंग्य के लक्षण हैं- लघुकथा की विशेषता मानने लगे। परिणामस्वरूप ऐसी लघुकथाओं की बाढ़-सी आ गई जिनमें आक्रोश की प्रधानता हो।
     लघुकथा आखिर कहानी की उपधारा है। व्यंग्य उसकी शैली हो सकती है, विषेशता नहीं। इस तथ्य पर न तो लघुकथाकारों ने ज्यादा ध्यान दिया, न ही समीक्षकों ने। चूंकि लघुकथा अपनी शब्द-सीमा से भी बंधी थी, इसलिए व्यंग्य की प्रहारात्मकता रचना को झन्नाटेदार समापन देने में मददगार बनी। लेखक को सुभीता था कि जब उसको लगे कि रचना लघु कलेवर से बाहर आने को है- एक समापन-प्रहार देकर चलता बने। छापामार शैली जिसकी ओर डॉ. किरण ने संकेत किया है, यही है। लेकिन इससे रचना अपनी स्वाभाविकता खो देती है। ‘लगाव’ की विषेशता है कि वह अपनी सहजता और कहानीपन को अंत तक बनाए रखती है और एक संपूर्ण रचना होने का एहसास दिलाती है। अकेलेपन की मनोस्थिति पर अशोक भाटिया की एक लघुकथा मुझे अक्सर याद आती है। उसमें होली पर रंगियारों से बचने के लिए एक सद्गृहस्थ खुद को घर में बंद कर लेते हैं। धीरे-धीरे लोग भी उनकी ओर से उदासीन हो जाते हैं। तब उन्हें अपना अकेलापन कचोटने लगता है और वे अपने ही हाथों से गुलाल चेहरे पर मल लेते हैं। आपसी सौहार्द, मानवीय संवेदना और अपनत्व की रक्षा के लिए ‘लगाव’ जैसी लघुकथाएं अपेक्षित हैं।
    ‘लगाव’ की भावभूमि को विस्तार देती संग्रह में भगीरथ की लघुकथा है- ‘सोते वक्त’। मानो ‘लगाव’ के बूढ़े की स्मृति-यात्रा हो। भगीरथ की लघुकथाओं पर विस्तृत, गवेषणात्मक टिप्पणी उमेश महादोषी की है। इस लघुकथा पर वे लिखते हैं- ‘बूढ़े और बूढ़ी के बीच बुढ़ापे में प्रेम की अनुभूति इतनी गहरी है कि वे एक-दूसरे के न रहने की कल्पना से ही दहशत में आ जाते हैं। पीड़ा और प्रेम की यह मिली-जुली गहन अनुभूति इसे एक सार्वकालिक रचना बना देती है।’ भगीरथ ने लघुकथाओं का लंबा सफर तय किया है। समीक्षा और रचनात्मक लेखन में उनका योगदान भी कम नहीं है। वे ‘लघुकथा के भगीरथ हैं...उन कुछ प्रमुख साहित्यकारों में सम्मिलित हैं, जिनके संयुक्त सृजनात्मक एवं संरचनात्मक प्रयासों का परिणाम है कि लघुकथा आज कथा साहित्य के केंद्र में विद्यमान है।’’ युगलजी इस संकलन में शामिल लघुकथाकारों में संभवतः सबसे वरिष्ठ हैं। लघुकथा के क्षेत्र में उन्होंने देर से कदम रखा। अब तक उनके पांच लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। संग्रह में सम्मिलित लघुकथाओं में ‘नामांतरण’ और ‘औरत’ बेहतरीन रचनाएं हैं। बकौल शैलेंद्र कुमार शर्मा, ‘युगलजी की निगाहें कथित आधुनिक सभ्यता में मानवमूल्यों के क्षरण पर निरंतर बनी रही हैं। ....उनकी लघुकथाएं सर्वव्यापी सांप्रदायिकता पर तीखा प्रहार करती हैं.... उनके यहां पूर्वांचल की स्थानीयता का चटख रंग यहां-वहां उभरता हुआ दिखाई पड़ता है।’ 
     हिंदी लघुकथा को समर्पित लेखकों की सूची बनाई जाए तो उसमें सुकेश साहनी का नाम शीर्ष की ओर रहेगा। वे वरिष्ठतम हिंदी लघुकथाकारों में से हैं। उन्होंने एक बार इस विधा का हाथ थामा तो अभी तक उससे जुड़े हुए हैं। विधा-विशेष के प्रति इतना समर्पण, इतनी निष्ठा और उल्लास विरलों में ही दिखाई पड़ता है। फंतासी में मानवीय सरोकार बुनने की कला में वे सिद्धहस्त हैं। उनकी लघुकथाओं में कई बार तो इतना महीन व्यंग्य होता है कि उसको पकड़ पाना कठिन हो जाता है। ‘लघुकथा की प्रभावशीलता के लिए व्यंग्य, ध्वनि या व्यंजना को वे पहचानते हैं और उसका भली प्रकार इस्तेमाल करने में कुशल हैं। अतिरंजना और फंेटेसी का उन जैसा सटीक प्रयोग करना हर किसी के बस की बात नहीं।’ (ऋषभदेव शर्मा)। यह अतिरंजना उनकी लघुकथा ‘गोश्त की गंध’ में अति की सीमा पार करती नजर आती है। इसे पढ़कर देह झनझना उठती है। उनकी रचनाओं में घटनाएं बहुत तेजी से घटती हैं। यही त्वरा उनकी कहानियों को विशिष्ट बनाती ह।, ‘कथाभाषा के गठन में सुकेश जहां सहजता और प्रतीकात्मकता को मुहावरेदानी और आमफहम भाषा के सहारे एक साथ साधते हैं, वहीं सटीक विशेषणों, उपमानों और विवरणों के सहारे अभिव्यंजना को सौंदर्यपूर्ण भी बनाते हैं।’ (प्रो. शेलेंद्र कुमार) 
     कुल मिलाकर ‘पड़ाव और पड़ताल’ जहां लघुकथाकारों के लिए एक कसौटी का निर्माण करता है, वहीं यह लघुकथा के लिए भी नए प्रतिमान गढ़ने का काम करता है। यह जरूरी पुस्तकमाला है। जिसे चलते रहना चाहिए। लेकिन एक संशोधन के साथ कि पुस्तकमाला की किसी कड़ी का संपादक उसमें लेखक के रूप में सम्मिलित न हो। उसके संपादन का दायित्व उससे पहले या बाद की कड़ी के संपादक को मिलना चाहिए।

पड़ाव और पड़ताल, खंड-दो : लघुकथा संकलन। संपादन :  डॉ. बलराम अग्रवाल। प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, 138/3, त्रिनगर, दिल्ली-110035। मूल्य : रु. 350/- मात्र। संस्करण : 2014।

  • जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम्, गाजियाबाद-201013(उप्र)

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