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रविवार, 2 फ़रवरी 2014

अविराम की समीक्षाएं

अविराम  ब्लॉग संकलन  वर्ष  : 3,   अंक  : 05-06,  जनवरी-फरवरी 2014  

अविराम का क्षणिका विशेषांक

     
{अविराम के क्षणिका विशेषांक पर डॉ.सुरेन्द वर्मा, प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय, सुश्री शोभा रस्तोगी शोभा व इन्दिरा किसलय के समीक्षात्मक पत्र हम यहाँ रख रहे हैं।}


डॉ.सुरेन्द वर्मा



एक नायाब अंक

....इस अंक में क्षणिका के स्वरूप को एक अच्छी पहचान मिली है। डॉ.क.कि. गोयनका के अनुसार क्षणिका द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म संवेदनाएं प्रस्तुत की जा सकती हैं। डॉ.स.दुबे क्षणिका की असली शक्ति उसकी प्रस्तुति या संप्रेषण क्षमता में देखते हैं। क्षणिका एक बिंब, एक विचार, एक प्रभाव को कुछ पंक्तियों में शिद्दत के साथ व्यक्त करती है। रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’ विषयवस्तु और प्रस्तुति दोनों का ही सार्थक समायोजन क्षणिका के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार तभी रचना निखर पाती है। जि. जौहर ने आकार की लघुता, अभिव्यक्ति की गहराई और प्रभाव की व्यापक परिधि- तीन गुणों को क्षणिका के लिए आवश्यक माना है। डॉ.पु.दुबे क्षणिका को कुछ अर्थवान शब्दों का ‘विराट सम्मोहन’ मानते हैं और एक क्षण की उपलब्धता से तथा रचनात्मक विचार से, उसका जन्म बताते हैं। शोभा रस्तोगी रसात्मक अभिव्यक्ति व त्वरित संप्रेषणीयता को क्षणिका का प्राण बताती हैं। बहरहाल, क्षणिका के जितनी भी विशेषताएं गिनाई गई हैं, वे किसी भी कविता में देखी जा सकती हैं, सिवा इसके कि क्षणिका एक लघुआकारी और अतुकांत कविता है और जिसका कोई निश्चित मात्राओं आदि का ढांचा नहीं है। क्षणिकाओं के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालकर आपकी पत्रिका ने इस लघु आकारी काव्य-विधा को समझने-परखने का जो जज्बा दिखाया है, प्रशंसनीय है। ‘कैनवस’ के अन्तर्गत आपने कुछ क्षणिकाओं पर जो समीक्षात्मक टिप्पणियाँ आमंत्रित की हैं, वह क्षणिका के शास्त्रीय अध्ययन के लिए एक द्वार खोलता है। ज़रूरी था। जहां तक क्षणिकाओं के चयन का प्रश्न है, उसमें मुझे लगता है आपने काफ़ी उदारता बरती है। पर एक महत्वपूर्ण बात यह रही कि ‘क्षितिज के पार’ के अन्तर्गत सभी प्रवासी रचनाकारों ने अति प्रभावी क्षणिकाएं उपलब्ध कराईं हैं। इनमें अनिल जनविजय को छोड़कर सभी रचनाकार महिलाएं हैं, इस पर भी अनायास ही ध्यान जाता है। वैसे जनविजय की क्षणिकाएं भी बहुत सुन्दर बन पड़ी हैं। इस नायाब अंक के लिए आप सचमुच बधाई के पात्र हैं। 

  • 10/1, सर्कुलर रोड, इलाहाबाद 



प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय 


लघु से विराट की यात्रा का समय आ गया है

अविराम साहित्यिकी के अक्टूबर-दिसंबर अंक के पृष्ठ 5 से 45 तक आपने क्षणिकाओं का संपादन किया है। एक लंबी कविता, जो पांच-सात पृष्ठों की होगी, उसी को आपने बीस-तीस शब्दों में इस कलात्मकता और विदग्धता से उकेरा है कि देखते ही बनता है। बूँद में सागर और धूलिकण में बवंडर समेटना इसी को कहते हैं। बलराम अग्रवाल ने प्रेम को ऐसा व्यापक आकश दिया है जैसा ‘न भूतो न भविष्यति’- ‘‘भाव मात्र है वह/नहीं है वस्तु भौतिक स्पर्श की।’’ इसी भौतिकता के चक्कर में पड़कर प्रेम मांसलता पर दम तोड़ देता है। सुरेश सपन पर्यावरणीय चिंता का कारण मनुष्य का लोभ, लालच बताते हैं जिसने कर दिया नदी को गंदला, बीमार- ‘‘नहीं लड़ पाई/आदमी के लालच से/विष्टा से भरी/अब/ नदी बहुत बीमार रहती है।’’ देवेन्द्र शर्मा ऊँचाई पर चढ़ तो गए पर यह सत्य जान सके- ‘‘वहाँ ‘पर’ काम नहीं करते।’’ सीमा स्मृति अहसास कराती हैं कि वक्त की जिसे पहचान नहीं, जो उससे बेखबर है, उसे भयंकर खामियाजे भुगतने पड़ेंगे। शिवकुटी लाल वर्मा स्वप्न को दीमकों के हवाले करके निश्चिंत हैं या बेचैन, पता नहीं चलता। ध्वन्यार्थ यह है कि स्वप्न लिपिबद्ध करने हों, उन्हें व्यवहारिकता की ठोस जमीन भी मिले। जीवन जितना संघर्षमय, कर्मसंकुल और आपाधापी वाला होता जाता है, काव्य रूप तदनुसार ढलता है। आज लघु से विराट की यात्रा का समय आ गया है। बूँद में सागर समाना है तो लघुकथा और क्षणिका ही एक मात्र साधन हैं। सभी रचनाकारों के योगदान काल-भाल पर अमिट हस्ताक्षर हैं।

  • वृंदावन, राजेन्द्र पथ, धनवाद-826001, बिहार




शोभा रस्तोगी





 क्षणिका के आकार-प्रकार व  इतिहास-वर्तमान-भविष्य का ताना बाना 
अविराम साहित्यिकी का क्षणिका विशेषांक हस्तगत हुआ। आवरण पृष्ठ की मुखमुद्रा चिंतन बोध कराती है । भीतर अनेक अर्थों की  रोशनी बिखेरती फुलझड़ी की मानिंद रमेश चन्द्र शाह की क्षणिका है। ‘माइक पर’ में महादोषी जी क्षणिका का विस्तृत परिचय देते हैं। - सिर्फ सन्नाटा नहीं - में अनेकानेक सिद्धहस्त व नवागतों की क्षणिका रससिक्त करती है तो झकझोरती भी है। महेश चन्द्र पुनेठा-
इतना दमन/शोषण 
अन्याय-अत्याचार 
फिर भी ये चुप्पी। 
तुम से अच्छे तो 
सूखे पत्ते हैं । 
       जीवन में संवेदना का होना शरीर में प्राण की नाईं हैं। यही संवेदना किसको कितना भिगोती है यह गौरतलब है। क्षमा चाहूंगी पर कहना जरूरी है। स्त्री रचित क्षणिकाओं में मन अधिक भीगता है। इनमे प्रेम है, प्रेम का दंश है, तिरस्कार है, नफरत है, नकारात्मकता भी रसमय है। गीली है। आद्र है। भाव धरा पर उगी काव्य दूब के पोरों में नमी है- पीड़ा की, चुभन की, छुए-अनछुए नेह की। यही नमी पुरुष रचित क्षणिकाओं में कुछ सूखी है। वहाँ राजनीति है, दम्भ है, मालिकाना अहं है। 
राजवंत राज की समर्पण भावना -
मैंने तुम्हे किताबों की शक्ल में पढ़ा है 
पढ़ते पढ़ते न जाने कब में 
उसमें रखा 
मोर का पंख हो गयी। 
अनेक क्षणिकाएँ तो मील का पत्थर बन दिशा देती हैं। रामेश्वर कम्बोज हिमांशु जी-
घर से चले थे हम 
बाहर निकल गए 
अब तो दस्तकों के भी 
अर्थ  बदल गए। 
बलराम अग्रवाल जी भौतिकता को प्रेम से परे सरका देते हैं- 
प्रेम को 
रखिए दूर शरीर से 
भाव मात्र है वह 
नहीं है वास्तु 
भौतिक स्पर्श की।  
अन्य भी अत्यंत मार्मिक सधी अभिव्यंजित क्षणिकाएं हैं। सभी को यहाँ उद्धृत करना समीचीन न होगा। 
 -पहचान- के अंतर्गत महादोषी जी ने खुलकर क्षणिका के आकार प्रकार, इतिहास-वर्तमान-भविष्य का ताना बाना बुना है नाना विद्वानों की लेखनी से। यथा- कमल किशोर गोयनका जी, सतीश दुबे जी, सुरेन्द्र वर्मा जी, हिमांशु जी, जितेन्द्र जौहर जी.... एक लम्बी श्रंखला है। यहाँ हमें क्षणिका के रूप, आत्मा, प्राण के नियमन का निरूपण मिलता है। अभी हम विधा विशेष को जान ही रहे होते हैं, -यह भी रास्ता है- से महादोषी जी क्षणिका मधु की बौछार कर देते हैं। नव-पुरातन, सिद्धहस्त, नौसिहिया सभी की चुनिंदा अंतस्थल को भेदने में सक्षम क्षणिका पूर्ण सौंदर्य ले उपस्थित होती है। मुखराम माकड़ माहिर जी-
तलाश रहा है 
हर कोई 
टुकड़ा चाँद का 
चलकर 
अंधी पगडंडियों पर 
अपनी अपनी बात- पर पुनः क्षणिका अपने रूप पर गर्वित होती है कुशल लेखनी से। -क्षितिज के पार- में महादोषी जी भारत से दूर भारतीय साहित्यकारों की लेखनी का उजाला फैलाते हैं। सुधा ढींगरा-
बर्फ से
दबी घुटी 
घास की पीड़ा 
सूर्य ने देख ली 
अपनी किरणें भेज
बर्फ पिघलकर 
घास को सहलाया। 
खांसी जुकाम से 
मुक्त हुई/नन्ही बच्ची सी घास 
खिल उठी। 
अनीता कपूर जी-
यादों की चारपाई 
उम्र का बिछौना 
नज़मों को ओढ़ 
पकड़ी ही रह गयी 
उस रात का कोना। 
बहुत प्रीतिकर व ज्ञानात्मक रहा- केनवास। जिसके जरिए न केवल अतिश्रेष्ठ क्षणिकाओं का पठन रस पान किया अपितु उन पर विशद विवेचना से लाभान्वित भी हुए। 
   अंत में -उदहारण- ने तो हीरे ही परोस दिए जगमगाते। भरपूर उजालों की रश्मियाँ छिटकाते। केदारनाथ सिंह जी- 
उसका हाथ 
अपने हाथ में लेते हुए 
मैंने 
सोचा दुनिया को हाथ की तरह 
गर्म और सुन्दर होना चाहिए। 
रघुवीर सहाय जी- 
बच्चा गोद में लिए 
चलती बस में चढ़ती स्त्री 
और मुझमे कुछ 
दूर तक घिसटता जाता  हुआ। 
ज्ञानेन्द्रपति-
गूंजता रहता है 
जिसकी देह का घर 
दस्तकों में 
उसके मन के घर में 
ओह कितनी निर्जनता है । 
      कथन तो अथाह है पर विशेषांक पढ़कर रस पान की अनुभूति से मन आसक्त हो गया है। श्रेष्ठ क्षणिकाकार होते हुए भी महादोषी जी ने हमें अपनी क्षणिका का पठन रस नहीं दिया। तथापि सतीश दुबे जी के आलेख में हमने उन्हें ढूंढ ही लिया है। महादोषी जी-
उस पार था खेत 
बीच में नदी 
बह गया हरिया 
धार कुछ ऐसे थी
आँखों में उगती रही 
फसल हरी भरी। 
     सुन्दर कलेवर में क्षणिका के नाना अंगों व प्राण तत्वों को जिस तरह महादोषी जी ने रखा है अनिर्वचनीय है, सुखद है।  आशा व विश्वास है कि आगे भी महादोषी जी इसी भांति विविध विधाओं पर विशेषांक निकालते रहेंगे। सुप्रसिद्ध रचनाओं को पढ़ हम नौसिखिए कुछ सीखेंगे, रचेंगे।.... 
  •  आर.जेड. एण्ड डी-208-बी, डी.डी.ए. पार्क रोड, राजनगर-2, पालम कालोनी, नई दिल्ली-110077



इन्दिरा किसलय 





क्षणिका के शिल्प विधान पर समग्र चिन्तन

....‘क्षणिका’ के शिल्प विधान पर एक समग्र चिन्तन पेश किया है आपने। अंक संपादक उमेश महादोषी ने सही कहा- ‘यह अनुभूतियों का बोंजाईकरण नहीं है।‘ मानवीय जीवन में गुणात्मक परिवर्तनों के सापेक्ष, क्षणिका के आविष्कार और सौंदर्य को आंका जाना चाहिए। क्षणिका, विद्युत आवेशित क्षण का सृजन है, जो दूरगामी प्रभाव छोड़ जाती है। मन को हर तरह से आन्दोलित करने की क्षमता रखती है। अवगुण्ठिता वधू सी होती है क्षणिका। शब्दगत अर्थों का घूंघट हटता है तो निहित सौन्दर्य का साक्षात् होता है। चक्रधर शुक्ल ने पते की बात कही है- ‘शीर्षक क्षणिका की जान होते हैं।’ राना लिधौरी अगर इस विधा के मानकीकरण की बात करते हैं तो आपने प्रस्तुत अंक में मानक भी दे दिये हैं- गुलजार, केदारनाथ सिंह, अभिमन्यु अनत और अमृता प्रीतम की क्षणिकाओं के माध्यम से। बरसों पहले कादम्बिनी के यात्रा-पथ पर उतरी क्षणिका ने अविराम साहित्यिकी तक पहुंचकर अपने अकूत वैभव की झलक दिखा दी है। डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, शैलेष गुप्त, सुरेन्द्र वर्मा, कमल किशोर गोयनका, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु सहित सारे आलेख पथ-प्रदर्शक और क्षणिका विधा का सांगोपांग विश्लेषण समेटे हैं। प्रकाशित रचनाओं में ‘दिल्ली और कवि’, ऐसे लोग अक्सर, मैंने तुम्हें, सिर्फ रोटी नहीं, हिसाब रोशनी का, तुम्हारे साथ, चुनाव, दर्द, मैं सागर हूं, सहज, रेत की हथेली पर, आदत, मैं बूंद हूं, हम कैद हैं, स्वप्न, कली ने एवं ‘आखिर कब तक’ ने विशेष प्रभावित किया।...
  • बल्लालेश्वर, रेणुका विहार, रामेश्वरी रिंग रोड, नागपुर-440027, महा.

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