आपका परिचय

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०७, मार्च २०१२ 

।।कथा प्रवाह।।  

सामग्री :  डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति,  युगल,  सुरेश शर्मा, महावीर रवांल्टा,  राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’ एवं शोभा रस्तोगी शोभा  की लघुकथाएं। 



डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति




दीवारें   
                    
    “ससरी ’काल बापू जी! और क्या हाल है?” कश्मीरे ने घर के दरवाजे के सामने गली में चारपाई पर बैठे बापू को कहा और साथ ही पूछा, “जस्सी घर पर ही है?”
   “हाँ बेटा! और तू सुना, राजी हैं सब?”
   “हाँ बापू जी! मेहर है वाहेगुरू की! आपको शहर की गली में पेड़ के नीचे बैठा देख, गाँव की याद आ गई। शहरी तो बस घरों में ही घुसे रहते हैं३अच्छा बापू, मैं आता हूँ जस्सी से मिलके।” कहकर वह अंदर चला गया।
   जस्सी ने कश्मीरे के आने की आवाज़ सुन ली थी। वह कमरे से बाहर आ गया और कश्मीरे को गले मिलता अंदर ले गया।
अपनी बातें खत्म कर कश्मीरे ने पूछा, “और बापू जी कब आए?”
रेखांकन : बी. मोहन नेगी 
   “तबीयत कुछ खराब थी, मैं ले आया कि चलो शहर किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा देंगे। पर इन बुजुर्गों का हिसाब अलग ही होता है। कार में बिठाकर ले जा सकते हो, टैस्ट करवा सकते हो, पर दवाई-बूटी इन्होंने अपनी मर्जी से ही लेनी होती है।” जस्सी ने अपनी बात बताई।
   “चलो! तूने दिखा दिया न। अपना फर्ज तो यही है बस।”
   “वह तो ठीक है। अब तूने देख ही लिया न, घर के अंदर कमरों में ए.सी. लगे हैं, कूलर-पंखे सब हैं। पर नहीं, बाहर ही बैठना है, वहीं लेटना है। बुरा लगता है न। पर समझते ही नहीं।”
   “तूने समझाया?”  कश्मीरे ने बात का रुख बदलते हुए कहा।
   “बहुत माथा-पच्ची की।”
   “चल। सभी को पता है, इन बुजुर्गों की आदतों का।” कहकर वह उठ खड़ा हुआ।
   वह बाहर आ एक मिनट बापू के पास बैठ गया और उसी अंदाज़ में बोला, “बापू, तूने तो शहर का दृश्य ही बदल दिया।”
   “हाँ बेटा! घर में पंखे-पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और बेटा, आता-जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो बातें सुना जाता है। अंदर तो बेटा दीवारों को ही देखते रहते हैं।”
   “यह तो ठीक है बापू! जस्सी कह रहा था, सभी कमरों में टी.वी. लगा है। वहाँ भी दिल बहल जाता है।” कश्मीरे ने अपनी राय रखी।
“ले ये भी सुन ले। मैं तो उसे दीवार ही कहता हूँ३अब पूछ क्यों?....बेटा, कोई उसके साथ अपने दिल की बात तो नहीं बाँट सकता न।”
  • 97, गुरु नानक एवन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर (पंजाब)-143004 

युगल


सिरफिरा

   मस्जिद की तरफ से लौटते हुए मौलाना को डाकपिउन ने टोंका- ‘‘मौलाना, आप तो यहाँ के सारे मुसलमानों को जानते हैं। जरा यह चिट्ठी देखिए तो किसकी है?’
   मौलाना ने उस अन्तर्देशीय को उलट-पुलट कर देखा। पता तो यहीं का था। नाम था बदूरी खाँ सदूरी खाँ। मौलाना ने कहा- ‘यहाँ तो इस नाम का कोई आदमी नहीं है। तुमने पीपल वाले बदरुद्दीन को पूछा था?’
   पिउन बोला- ‘जी हाँ, मैंने यह चिट्ठी बदुरुद्दीन को भी दिखलाई थी और दरगाह वाले सदरुद्दीन को भी। आप चिट्ठी खोलकर ज़रा पढ़ देखिए, शायद कोई सुराग मिले।‘ मौलाना ने चिट्ठी खोली-
   चाचाजान को सलामअलैकुम वो रमजानी को आदाब!
   खुदा के फज़ल से हम लोग राजी खुशी से हैं, आप लोग भी अच्छी तरह होंगे। आगे हाल यह है कि आप लोगों के गये पाँच साल से ज्यादा हो रहे हैं। मैंने इस बीच कई खत भेजे हैं, लेकिन आप लोगों की तरफ से कोई जवाब नहीं आया। आप लोग तो यही समझते होंगे कि हिन्दुओं ने फकीरू को काटकर फेंक दिया होगा। आप लोगों के जाने के बाद पूरी बस्ती में हम लोग सिर्फ तीन घर मुसलमानों के रह गये हैं। पिछले पाँच सालों में यहाँ हम लोगों के साथ कोई वारदात नहीं हुई। पहले जो ग्वाले हम लोगों की फसल चुराकर काट ले जाते थे या रात में अपनी भैंसें हमारे खेतों में छोड़ देते थे या हमारे जानवर खोल ले जाकर बाहर बेच आते थे, इधर इनकी ये हरकतें बन्द हैं।
रेखांकन : महावीर रंवाल्टा
   आपने तो कहा था कि हम भी सब बेचकर आप लोगों के साथ ही चल चलें। लेकिन जिस मिट्टी में हमारी मिट्टी खड़ी हुई, उसे छोड़कर कहीं जाने का मन नहीं हुआ। चूँकि यहाँ तीन घर मुसलमान हैं और स्कूल जाने वाले कुल जमा पाँच बच्चे ही हैं, सो यहाँ मदरसा नहीं है। बच्चे हिन्दुओं के स्कूल में जाते हैं। बच्चों को मैं खुद कुरान पढ़ा देता हूँ। लेकिन उसका मायने मैं जब खुद नहीं समझता, तो उन्हें क्या समझाऊँ? बच्चे चाहे हिन्दी पढ़ें या उर्दू, अल्लाह से दुआ करता हूँ कि ये मज़हबी फितूर में न पड़ें और नेक इन्सान बने रहें।
   चाचाजान, हमारे खेत हिन्दू जोतते हैं, खलिहान उन्हीं के ईमान पर हैं। दद्दन बुआ वो फजले नहीं रहे। उनकी कब्रें हिन्दू नोनियों ने खोदी थीं। धोबी, हज्जाम सब तो हिन्दू ही हैं। हमें इन्हीं के बीच रहना है। रामनौमी के जुलूस अब भी निकलते हैं। लोग तलवार बाना भाँजते हमारे घरों के आगे से निकलते हैं। पहले डर लगता था, अब नहीं लगता। पल्टू साह के ज़ोर पर पिछले साल से हम लोग भी ताज़िए का जुलूस निकाल रहे हैं। अब सब कुछ पहले जैसा हो गया है। 
  उस दिन बब्बन पंडित कह रहे थे- ‘फकीरू! तुम्हारी बाबर वाली मस्ज़िद तो हिन्दुओं ने गिरा दी, अब तुम्हारे खुदा मियाँ कहाँ रहेंगे? मैंने हँसते हुए जवाब दिया- फिर तो वह आपके मन्दिरों में घुस जाएंगे। इस पर बब्बन पंडित खूब हँसे और मेरे हाथ में मली जा रही खैनी की एक चुटकी अपने होंठ के नीचे दबाते हुए बोले- न जाने आदमी की अक्ल पर कैसा पत्थर पड़ गया है। ईंट-पत्थर के लिए आदमी का खून करते हैं।
  मौलाना ने आगे बिना पढ़े ही वह अन्तर्देशीय पिउन को लौटा दिया- ‘पता नहीं, किस सिरफिरे ने यह लिखा है।’ और वह आगे बढ़ गये।
  • मोहीउद्दीन नगर, समस्तीपुर-848501 (बिहार) 

सुरेश शर्मा


बदला

   आदिवासी परिवार के पांच-छः सदस्य गांव के पास जंगल में लकड़ी बीनने गए। लकड़ी बीनते हुए सभी एक-दूसरे से कुछ दूर हो गए। तभी चौदह-पन्द्रह वर्ष की लड़की मंगली की चीख सुनकर सभी चौंक गए। घबराते हुए उन्होंने देखा कि शेर मंगली की ओर भागा चला आ रहा है। मंगली ‘बचाओ-बचाओ’ की चीख के साथ अपने को बचाने का प्रयास कर रही थी। परिवार वाले देखकर होश-हवास खो बैठे। गांव वालों को पुकारते हुए वे गांव की ओर दौड़ पड़े। तभी शेर ने झपट्टा मारकर मंगली की कमर पकड़ ली। मंगली को पल-भर के लिए मौत मड़राते हुए नज़र आई। मरता क्या न करता! उसने साहस किया। दोनों हाथों से शेर के कान पकड़कर पूरी ताकत के साथ उमेठ दिए। शेर इस अचानक वार के लिए तैयार नहीं था। उसने लड़की को छोड़ दिया।
रेखांकन : नरेश उदास 
   उस समय उपस्थित जानवरों ने एक मामूली-सी लड़की से इस प्रकार शर्मनाक पराजय का कारण अपने राजा से पूछा। शेर ने बड़े धीरज के साथ उनकी बात सुनी, फिर जवाब दिया- ‘यह सही है कि मैं पल-भर में ही इस लड़की को खत्म कर देता। मैंने तो उसे छोड़ दिया। मगर जब भी आदमी को मौका मिलेगा वो नहीं छोड़ेंगे इसे। हर बार वह ईश्वर से प्रार्थना करेगी कि इससे तो अच्छा होता कि उस दिन शेर ही उसे खा जाता।
  • 235, क्लर्क कालोनी, इन्दौर-452011 (म.प्र.)









महावीर रवांल्टा












समझौता

   ‘अगर तुम्हें घर छोड़ना ही है तो छोड़ क्यों नहीं देती, कौन रोकता है तुम्हे!’ पत्नी को उलाहना देता हुआ पति आवेश में फट पड़ था। पति के शब्द सुनकर पत्नी का सारा गुस्सा हवा हो गया और वह पति के बारे में सोचने लगी थी।
   ‘यही पति था जो उससे एक दिन की जुदाई भी बर्दास्त नहीं कर सकता था, आज उससे घर छोड़ने की बात कर रहा था।’
   उसे लगा वह किसी चौराहे पर निर्वस्त्र खड़ी है और अनगिनत निगाहें उसका पीछा कर रही हैं।
   इसके बाद उसने फिर कभी पति के सामने घर छोड़ने की जिद नहीं की, बस उसकी सुनती रही।

  • ‘सम्भावना’ महरगॉव, पत्रा.- मोल्टाड़ी, पुरोला, उत्तरकाशी-249185, उत्तराखण्ड 



राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’

(लघुकथाकार श्री राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’ जी का लघुकथा संग्रह ‘खूंटी पर लटका सच’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं दो लघुकथाएं।)




बदलते समय की सोच

   डॉक्टरों ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि यदि छगनलालजी को बचाना है तो इन्हें पहाड़ी क्षेत्र में कुछ दिनों के लिये ले जाना होगा। रमेश ने जाने का तय भी कर लिया था।
   तभी एक दिन पत्नी ने गले में बाहें डालते हुए कहा- ‘‘डार्लिंग, मेरे भाई की शादी आ रही है। गले का हार बनवा दो न!’’
   ‘‘पिताजी को आबोहवा बदलवाने पहाड़ पर ले जाना है। हार अभी रहने दो।’’ रमेश ने समझाया।
   पत्नी ने समीप आते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम चाहे पिताजी को पहाड़ पर ले जाओ या स्विट्जरलेण्ड, वे ज्यादा दिन टिकने वाले नहीं हैं। पैसा मिट्टी में मिल जाएगा। अगर मेरा हार बनता है तो भविष्य में बच्चों के ही काम आयेगा।’’
   बात रमेश के गले उतर गई और उसने दवाई का पर्चे कचरे की टोकरी में डाल दिये।

धर्म और कर्तव्य

रेखांकन : महावीर रंवाल्टा
   ‘‘नहीं, हम किसी भी कीमत पर मंदिर नहीं बनने देंगे। कुर्बानी के लिए तैयार रहो।’’ एक आवाज.....और अनेकों तलवारें हवा में लहरा उठीं।
   ‘‘नहीं! वहां मस्जिद नहीं बनने दी जाएगी। बलिदान के लिए तैयार हो जाओ।’’ दूसरी आवाज.....और अनेकों फरसे हवा में ऊँचे हो गये।
   एक घण्टे बाद तलवार लहराने वाले शहर में बन रहे एक मंदिर में मिस्त्री-मजदूर बने तनमन से पेट की खातिर जुटे हुए थे; वहीं फरसे वाले भी एक अन्य निर्माणाधीन मस्जिद के बाहर काम की उम्मीद में भीड़ लगाए खड़े थे।
  • ए/91, विवेकानन्द कॉलोनी, उज्जैन-456010 (म.प्र.)

शोभा रस्तोगी शोभा




नवरात्रे

    चौधरी साहब बाजार से निकल रहे थे, अचानक सुखूबाई टकराई ......‘कैसे हो चौधरी ! अपने इधर नहीं आये कई दिनों से....’
   ‘हाँ... हाँ, सुखूबाई ! मै ठीक हूँ......’
   ‘....एक नई कन्या मतबल नया माल आया है कोठे पे ....आना चौधरी.....’
   ‘नहीं सुखूबाई! अभी तो नवरात्रे चल रहे है न... कन्या के हाथ लगाना मना है.....’
    चार दिन बाद चौधरी सुखूबाई के कोठे पर थे। 
    ‘अरे ला ...सुखूबाई, नया माल कित सै?’
    ‘चौधरी! अब क्या हाथ लगा लोगे कन्या के ?’
   ‘इब तो सब कुछ लगा लूँगा, नवरात्रे जो ख़त्म हो गए हैं.....!’

  • आर जेड डी-20 बी,  डी.डी.ए. पार्क रोड,  राज नगर-2,  पालम कालोनी,  नई दिल्ली- 110077   

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